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मोक्षमार्ग की पूर्णता चारित्र सम्यक् होने पर भी (साथ में सूक्ष्म लोभ के कारण) अचारित्र भी रहता है। - चौथे गुणस्थान से दसवें गुणस्थान पर्यंत जितनी मात्रा में कषाय के अभावपूर्वक वीतरागता प्रगट है, उतनी मात्रा में सम्यक्चारित्र व्यक्त है; यह विषय स्पष्ट है। ___ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय से लेकर नियम से पूर्ण वीतराग परिणाम रहता है। अत: म्यारहवें-बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय से ही भाव चारित्र पूर्ण प्रगट होता है, क्योंकि यहाँ (इन दोनों) गुणस्थानों में वीतरागता पूर्ण रूप से प्रगट है।
अर्थात् किसी भी प्रकार का कोई मोह-राग-द्वेष परिणाम नहीं है। इसलिए हमने बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय से ही भावचारित्र पूर्ण है, ऐसा लिखा है। इसीतरह तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थान में तथा सिद्ध अवस्था में भाव चारित्र पूर्ण रूप से ही प्रगट रहता है। . परमार्थत: जब तक आत्म-प्रदेशों के परिस्पन्दनरूप योग का एवं नरदेहाकार रूप विभाव व्यंजन पर्याय का सर्वथा अभाव नहीं हो जाता तब तक चारित्र गुण की परिपूर्ण शुद्ध अवस्था व्यक्त हुई, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसी अपेक्षा से स्वभाव व्यंजन पर्याय परिणत सिद्ध अवस्था में चारित्र की पूर्णता कही जाती है।
६५. प्रश्न : तेरहवें गुणस्थान में भाव चारित्र का प्रगट स्वरूप कैसा रहता है ?
उत्तर : तेरहवें गुणस्थान में वीतरागता पूर्ण होने के कारण यहाँ ग्यारहवें एवं बारहवें गुणस्थान के समान यथाख्यात चारित्र तो है ही। तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान प्रगट होने के कारण यथाख्यात चारित्र को परम यथाख्यात/परमावगाढ़ यथाख्यात चारित्र भी कहते हैं। तथापि अभी सयोगी जिन अवस्था होने से आत्म-प्रदेशों का परिस्पन्दनरूप अचारित्र विद्यमान कहा जाता है। उसका भी अभाव अभीष्ट है।
६६. प्रश्न : चौदहवें गुणस्थान में भाव चारित्र का स्वरूप कैसा है ?