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सम्यक्चारित्र की पूर्णता
उत्तर : तेरहवें गुणस्थान के समान ही चौदहवें गुणस्थान में परम यथाख्यात चारित्र तो है ही; तथापि तेरहवें गुणस्थान से यहाँ चारित्र और अधिक परिष्कृत/विशुद्धरूप हो गया है; क्योंकि यहाँ योग का/ आत्मा के प्रदेशों के परिस्पन्दन का अभाव हो गया है।
६७. प्रश्न : सिद्ध अवस्था के प्रथम समय में प्रगट चारित्र का क्या स्वरूप है ?
उत्तर : चौदहवें गुणस्थान की अपेक्षा सिद्धावस्था के प्रथम समय में चारित्र और भी अधिक विशुद्ध (परिष्कृत) हो गया है। स्वभाव व्यंजन पर्याय प्रगट हो गई है। अब भविष्य में अनंत काल तक चारित्र के परिष्करण में और कुछ होना शेष नहीं रहा; क्योंकि यहाँ चारित्र में किसी प्रकार की कुछ कमी नहीं। ___ चौदहवेंगुणस्थान में चार अघाति कर्मों के उदय के कारण एवं असिद्धत्व
औदयिक भाव के कारण जो कुछ कमियाँ थीं अब यहाँ उनका भी सर्वथा अभाव हो गया है। इसलिए सम्यक्चारित्र पूर्णरूप से विशुद्ध हो गया है। चौदहवें गुणस्थान में अर्थात् सदेह अरहंत अवस्था के कारण आत्मा के व्यंजन पर्याय थी। अब सिद्ध अवस्था के प्रथम समय में आत्मा की व्यंजन पर्याय भी पूर्ण शुद्ध हो गयी है। अत: यहाँ द्रव्य चारित्र की पर्याय भी पूर्णरूप से प्रगट हो गयी है। भावचारित्र तो बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय में प्रगट हो ही गया था। अत: यहाँ (सिद्ध अवस्था के प्रथम समय में) भाव एवं द्रव्य चारित्र पूर्णता को प्राप्त हो गया है। • ६८. प्रश्न- एक बार सम्यक्चारित्र उत्पन्न हो गया तो वह नियमपूर्वक बढ़ते-बढ़ते सिद्धावस्थापर्यंत पहुँच ही जाता है अथवा बीच में कुछ पतित होने की अनपेक्षित एवं दुःखद घटना भी हो सकती है ?
उत्तर - एक बार सम्यक्चारित्र उत्पन्न होने पर वह चारित्र उसी भव में सिद्धावस्था पर्यंत बढ़ते हुए पूर्ण होने का नियम नहीं है।