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सम्यग्ज्ञान की पूर्णता
(अक्रम से) इसके पहले सम्यक्त्वरूप पर्याय के प्रकरण में सम्यक्त्व की उत्पत्ति तथा उत्पत्ति के साथ ही उसकी पूर्णता को यथासंभव विस्तार के साथ समझ लिया है। ____ अब हमें ज्ञान गुण का विकास एवं उसकी पूर्णता को मुख्य बनाकर आगम के आलोक में उसे जानना है। इतना तो निश्चित है कि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के साथ ही ज्ञान भी नियम से सम्यक् होता है। तथापि सम्यक्त्व के निमित्त से ज्ञान का सम्यक् होना बात अलग है और ज्ञान गुण के पर्याय की पूर्णता (केवलज्ञान) होना अलग है। ___जैसे सम्यक्त्वरूप पर्याय, उत्पत्ति के समय से ही पूर्णरूप से प्रगट रहती है, वैसा ज्ञान के संबंध में नहीं है। ज्ञान का सम्यक् होना, ज्ञान का विकास होते रहना एवं ज्ञान की पूर्णता होना- इन सबका स्वरूप अपने स्वभाव से भिन्न प्रकार का ही है।
ज्ञान गुण की पूर्णता का कुछ भी खास नियम नहीं है। • चौथे गुणस्थानवर्ती साधक को मात्र मति-श्रुत दो ही ज्ञान हो
सकते हैं। • चौथे गुणस्थान में मति-श्रुत-अवधि तीन ज्ञान भी होना शक्य है। • किसी बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज को मात्र मति-श्रुत-ज्ञान दो
ही रह सकते हैं। • किसी छठवें-सातवें गुणस्थानवर्ती को अथवा श्रेणी में आरूढ़ ।
मुनिराज को मत्यादि तीन अथवा चार ज्ञान होना भी संभव है। • केवलज्ञान के पहले ज्ञान गुण के विकास का कुछ भी क्रम निश्चित
नहीं है।