________________
51
सम्यक्त्व की पूर्णता हमारी भावना है। सहचर गुणों के पर्यायों से सापेक्ष पर्यायों की चर्चा विवक्षित नहीं है। .. अनुभवप्रकाश ग्रंथ में पण्डित श्री दीपचंदजी कासलीवाल ने मिश्रधर्म नामक एक छोटासा स्वतंत्र अधिकार लिखा है, वहाँ ऐसा ही प्रश्न उपस्थित किया है, जो निम्नप्रकार है - ___३२. “यहाँ कोई प्रश्न करे कि- क्षायिकसम्यग्दृष्टि को सम्यक्गुण सर्वथा पूर्ण हुआ है या नहीं? उसका समाधान कहो।
यदि ऐसा कहोगे कि सर्वथा हुआ है तो (उसे) सिद्ध कहो। काहे से? कि – एक गुण सर्वथा विमल होने से सर्व (गुण) शुद्ध होते हैं। सम्यक्गुण सर्व गुणों में फैला है, (इससे) सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन सर्वगुण सम्यक् हुए। (परन्तु) सर्वथा सम्यग्ज्ञान नहीं है, एकदेश सम्यग्ज्ञान है। सर्वथा सम्यग्ज्ञान हो तो सर्वथा सम्यक्गुण शुद्ध हो, इसलिए सर्वथा नहीं कहा जाता।
(तथा) यदि किंचित् सम्यक्गुण शुद्ध कहें तो सम्यक्त्वगुण का घातक जो मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धी कर्म था वह तो नहीं रहा; जिस गुण का आवरण जाए वह गुण (सर्वथा) शुद्ध होता है, इसलिए (सम्यक्गुण) किंचित् (शुद्ध) भी नहीं बनता।
३३. तो किसप्रकार है ? उसका समाधान किया जाता है - वह आवरण तो गया तथापि सर्वगुण सर्वथा सम्यक् नहीं हुए हैं। आवरण जाने से सर्वगुण सर्वथा सम्यक् नहीं हुए इसलिए परम सम्यक् नहीं हैं। सर्वगुण साक्षात् सर्वथा शुद्ध सम्यक् हों, तब ‘परम सम्यक्' ऐसा नाम होता है। विवक्षाप्रमाण से कथन प्रमाण है।
उस दर्शनमोहनीय की पौद्गलिक स्थिति जब नष्ट हुयी, तभी इस जीव का जो मिथ्यात्वरूप परिणाम था, वह सम्यक्त्व गुण सम्पूर्ण