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सम्यक्त्व की पूर्णता
35 . आती; किन्तु द्रव्य में से ही पर्याय आती है, इसलिये पहिले द्रव्य का स्वरूप बताया है। पर्याय में जो विकार है, सो स्वरूप नहीं है; किन्तु गुण जैसी ही निर्विकार अवस्था होनी चाहिये। इसलिये बाद में गुण का स्वरूप बताया है। राग अथवा विकल्प में से पर्याय प्रगट नहीं होती; क्योंकि पर्याय एक दूसरे में प्रवृत्त नहीं होती। ...
१६. प्रश्न - पर्याय को चिद्विवर्तन की ग्रन्थी क्यों कहा है?
उत्तर - पर्याय स्वयं तो एक समय मात्र के लिये है; परन्तु एक समय की पर्याय से त्रैकालिक द्रव्य को जानने की शक्ति है। एक ही समय की पर्याय में त्रैकालिक द्रव्य का निर्णय समाविष्ट हो जाता है।"
कुछ पर्यायें निर्मलता/शुद्धता की अपेक्षा नियम से पूर्ण ही होती हैं और कुछ पर्यायें साधक अवस्था में नियम से अपूर्ण ही होती हैं। इस विषय को भी यहाँ अवश्य समझना चाहिये। __ जैसे-केवलज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान की पर्याय नियम से पूर्ण ही होती हैं - ऐसा कभी नहीं होता कि केवलज्ञान आधा-अधूरा होता हो।
तथा मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय – ये चारों क्षायोपशमिक ज्ञान कभी पूर्ण नहीं होते। ज्ञान की ये चारों पर्यायें हमेशा के लिए अपूर्ण ही होती हैं।
कर्म के क्षयोपशम के निमित्त से जो ज्ञान तथा चारित्र की पर्यायें होती हैं, वे सब शुद्धता की अपेक्षा अपूर्ण ही रहती हैं, ऐसा नियम समझना चाहिए।
श्रद्धागुण की औपशमिक सम्यक्त्वरूप पर्याय एवं क्षायिक सम्यक्त्वरूप पर्याय - दोनों परिपूर्ण एवं सर्वथा निर्मल ही होती है।
इसी क्रम में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को सदोष तो माना गया है; लेकिन सम्यक्त्व/प्रतीति अधूरी नहीं है। १. सम्यग्दर्शन, पृष्ठ-८३
पापा