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कर्ता-कर्म
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व्यक्ति निमित्त हैं, उनमें मैंने बनाई, मैंने बनाई, ऐसा कहने एवं मानने के लिए सब आगे-आगे आते ही रहते हैं।
इसलिए मूल वस्तु जो स्वयं कार्य/पर्यायरूप से परिणमित होती है, वही कर्ता है। उसकी मुख्यता से जानना ही वास्तविक जानना है। ___कर्ता के सम्बन्ध में जिनर्वाणी में तीन प्रकार के कथन मिलते हैं :१. द्रव्य, पर्याय का कर्ता है। २. गुण, पर्याय/कार्य का कर्ता है। तथा ३. पर्याय ही पर्याय का कर्ता है। इन तीनों कथनों को शास्त्र के आधार से ही समझने का यत्न करते हैं -
१. द्रव्य को पर्याय का कर्ता कहते हैं; क्योंकि द्रव्य में से ही पर्याय उत्पन्न होती है - द्रव्य के आधार से ही पर्याय प्रगट होती है। समयसार कलश क्रमांक ५१ में आचार्य श्री अमृतचन्द्र ने 'यः परिणमति स कर्ता' - ऐसा कहा है। अर्थात् जो परिणमित होता है वह (द्रव्य) कर्ता है। कलश ४९ में भी आचार्य श्री लिखते हैं -
"व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेन्नैवातदात्म्यन्यपि।
व्याप्यव्यापकभावसंभवमृते का कर्तृकर्मस्थितिः॥ अर्थात् व्याप्यव्यापकता तत्स्वरूप में ही होती है, अतत्स्वरूप में नहीं होती और व्याप्यव्यापकभाव के बिना कर्ताकर्म की स्थिति कैसी? अर्थात् कर्ताकर्म की स्थिति नहीं ही होती।"
इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि द्रव्य व्यापक है और पर्याय व्याप्य है। अतः द्रव्य कर्ता है एवं पर्याय कर्म है। इसतरह एक ही द्रव्य और उसकी ही पर्याय में कर्ता-कर्म सम्बन्ध है, अन्य किसी प्रकार से कर्ता-कर्म सम्बन्ध हो ही नहीं सकता। ___तात्पर्य यह है कि उत्पन्न हुई पर्याय (व्याप्य) का कर्ता व्यापकरूप द्रव्य को छोड़कर जो द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से भिन्न परद्रव्य है, वह किसी भी परिस्थिति में पर्याय का कर्ता नहीं बन सकता।