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२. गुण को पर्याय का कर्ता कहते हैं, यह 'गुण के परिणमन/ कार्य/विकार (विशेष कार्य) को पर्याय कहते हैं', - इस परिभाषा से ही स्पष्ट होता है। आलाप पद्धति में पर्याय अधिकार के सूत्र क्रमांक १५ में कहा भी है – “गुणविकाराः पर्यायाः।" इसका अर्थ है - गुणों के विकार (विशेष कार्य) को पर्याय कहते हैं। ___ द्रव्य के परिणमन को पर्याय कहते हैं - यह द्रव्यार्थिकनय अर्थात् अभेदनय का कथन है और गुण के परिणमन (कार्य, विकार) को पर्याय कहते हैं - यह पर्यायार्थिक अथवा भेदनय का कथन है - ऐसा समझना चाहिए।
गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं - ऐसा जो अभेद कथन है - उसी द्रव्य में ही भेद करके किसी एक गुण की मुख्यता से गुण के परिणमन को पर्याय कहते हैं तथा उस पर्याय का कर्ता गुण को ही बताया जाता है।
गुण को कर्ता कहने में अभिप्राय यह है कि एक गुण की पर्याय का कर्ता दूसरा गुण नहीं होता है। जैसे- श्रद्धा गुण की पर्याय का कर्ता ज्ञान गुण नहीं होता है व ज्ञान गुण की पर्याय का कर्ता श्रद्धा गुण नहीं होता है।
३. द्रव्य को अथवा गुण को विवक्षावश पर्याय का कर्ता न कहते - न मानते हुए पर्याय को पर्याय का कर्ता कहते हैं, यह विषय जिनवाणी में स्पष्ट शब्दों में मिलता है। आचार्य कुन्दकुन्द रचित प्रवचनसार ग्रंथ की गाथा १०२ की अमृतचन्द्राचार्यकृत संस्कृत टीका में यह विषय अत्यन्त विशदता से आया है। इस टीका में प्रत्येक पर्याय का अपनाअपना जन्मक्षण भिन्न-भिन्न ही होता है, यह विषय बताया गया है। ___ पर्याय का कर्ता द्रव्य को अथवा गुण को मानने में भी परावलम्बन की आपत्ति आ जाती है; स्वतंत्रता में बाधा आती है। इसलिए जो