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महावीर : मेरो दृष्टि में
लिए मैंने कहा कि अनुयायी कभी नहीं समझ पाता, समझ ही नहीं सकता। अनुयायी कुछ थोपता है अपनी तरफ से। समझने के लिए बड़ा सरल चित्त चाहिए; अनुयायी के पास सरल चित्त नहीं। विरोधी भी नहीं समझ पाता क्योंकि वह छोटा करने के आव्ह में होता है, अनुयायों से उल्टी कोशिश में . लगा होता है। प्रेम ही समझ पाता है । इसलिए जिसे समझना है, उसे प्रेम करना है और प्रेम सदा बेशर्त है। अगर कृष्ण को इसलिए प्रेम किया है कि तुम मुझे स्वर्ग ले चलना तो यह प्रेम शर्तपूर्ण होगा, उसमें कन्डीशन शुरू हो गई । अगर इसलिए महावीर से प्रेम किया है कि तुम ही सहारे हो, तुम्ही पार ले चलोगे भवसागर से, शर्त शुरू हो गई, प्रेम खत्म हो गया। प्रेम है बेशर्त । कोई शर्त ही नहीं। प्रेम यह नहीं कहता कि तुम मुझे कुछ देना । प्रेम का मांग से कोई सम्बन्ध ही नहीं। जहां तक मांग है, वहां तक सौदा है, जहां तक सौदा है वहां तक प्रेम नहीं है।
सब अनुयायी सौदा करते हैं। इसलिए कोई अनुयायी प्रेम नहीं कर पाता 'और विरोधी किसी और से सौदा कर रहा है, इसलिए विरोधी हो गया है !
और विरोध भी इसीलिए हो गया है क्योंकि उसे सौदे का आश्वासन नहीं दिखाई पड़ रहा है कि ये कृष्ण केसे ले जाएंगे ? तो कृष्ण को उसने छोड़ दिया है, इन्कार कर दिया है। प्रेम का मतलब है बेशर्त, प्रेम का मतलब हैं वह आंख जो परिपूर्ण सहानुभूति से भरी है और समझना चाहती है। मांग कुछ भी नहीं है।
महावीर को समझने के लिए पहली बात तो मैं यह कहना चाहूँगा कि . कोई मांग नहीं, कोई सीमा नहीं, कोई अनुकरण नहीं, कोई अनुयायी का भाव नहीं। एक सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से कि व्यक्ति हुआ जिसमें कुछ घटा-हम देखें कि क्या घटा, पहचाने क्या घटा ? खोजें कि क्या घटा? इसलिए जैन कभी महावीर को नहीं समझ पाएगा। उसकी शर्त बंधी है। जैन महावीर को कभी नहीं समझ सकता। बौद्ध बुद्ध को कभी नहीं समझ सकता। इसलिए प्रत्येक ज्योति के आसपास अनुयायियों का जो समूह इकट्ठा होता है, वह ज्योति को बुझाने में सहयोगी होता है; उस ज्योति को और जलाने में नहीं । अनुयायियों से बड़ा दुश्मन खोजना बहुत मुश्किल है। इन्हें पता ही नहीं कि ये दुश्मनी कर बैठते हैं।
अब महावीर.का जैन होने से क्या सम्बन्ध ? कोई भी नहीं। महावीर को पता ही न होगा कि वे जैन हैं। और पता होगा तो बड़े साधारण