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महापुराणम् तारकाकुमुदाकीर्णे नभःसरसि निर्मले। हंसायते स्म शीतांशु विक्षिप्तकरपक्षतिः ॥२७॥ नभोगृहाङगणे तेनुः श्रियं पुष्पोपहारजाम् । तारकादिग्वधूहारतारमुक्ताफलत्विषः ॥२८॥ बभुनभोऽम्बुधौ ताराः स्फुरन्मुक्ताफलामलाः । करका इव मेघोघेः निहिता' हिमशीतलाः ॥२६॥ ज्योत्स्नासलिलसम्भूता इव बुद्बुदपङक्तयः । तारका रुचिमातेनुः विप्रकीर्णा नभोऽङगणे ॥३०॥ तनूभूतपयोवेणी नद्यः परिकृशा दधुः । वियुक्ता घनकालेन विरहिण्य इवाङगनाः ॥३१॥ अनुद्धता गभीरत्वं भेजुः स्वच्छजलांशुकाः । सरित्स्त्रियो धनापायाद् वैधव्यमिव संश्रिताः ॥३२॥ दिगडगना घनापायप्रकाशीभूतमूर्तयः । "व्यावहासीमिवातेनुः प्रसन्ना हंसमण्डलः ॥३३॥ कूजितः कलहंसानां निजिता इव तत्त्यजः। केकायितानि शिखिनः सर्वः कालबलाद् बली ॥३४॥ ज्योत्स्नादुकूलवसना लसन्नक्षत्रमालिका । बन्धुजीवाधरा रेजे निर्मला शरदङगना ॥३॥ ज्योत्स्ना कीर्तिमिवातन्वन् विधुर्गगनमण्डले। शरल्लक्ष्मी समासाद्य सुराजेवाद्युतत्तराम् ॥३६॥
बन्धुजीवेषु विन्यस्तरागा बाणकृतद्युति:१३ । हंसी सखीवृत्ता रजे नवोढेव' शरद्वधूः ॥३७॥ और कुमुदिनियोंसे सहित सरोवर ऐसा जान पड़ता था मानो ताराओंसे सुशोभित आकाश को ही जीत रहा हो ॥२६॥ तारकारूप कुमुदोंसे भरे हुए आकाशरूपी निर्मल सरोवरमें अपने किरणरूप पंखोंको फैलाता हुआ चन्द्रमा ठीक हंसके समान आचरण करता था ॥२७॥ जिनकी कान्ति दिशारूपी स्त्रियोंके हारोंमें लगे हुए बड़े बड़े मोतियोंके समान है ऐसे तारागण आकाशरूपी घरके आंगनमें फूलोंके उपहारसे उत्पन्न हुई शोभाको बढ़ा रहे थे ॥२८॥ देदीप्यमान मुक्ताफलोंके समान निर्मल तारे आकाशरूपी समद्र में ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो मेघों के समूहने बर्फके समान शीतल ओले ही धारण कर रक्खे हों ॥२९॥ आकाशरूपी आंगनमें जहां तहां बिखरे हुए तारागण ऐसी शोभा धारण कर रहे थे मानो चांदनी रूप जलसे उत्पन्न हुए बबूलोंके सम्ह ही हों ।।३०।। वर्षाकालरूपी पतिसे बिछुड़ी हुई नदियां विरहिणी स्त्रियोंके समान अत्यन्त कृश होकर जलके सूक्ष्म प्रवाहरूपी चोटियोंको धारण कर रही थीं ॥३१॥ वर्षाकालके नष्ट हो जानेसे नदीरूप स्त्रियां मानों वैधव्य अवस्थाको ही प्राप्त हो गई थीं, क्योंकि जिस प्रकार विधवाएं उद्धतता छोड़ देती हैं उसी प्रकार नदियोंने भी उद्धतता छोड़ दी थी, विधवाएं जिस प्रकार स्वच्छ (सफेद) वस्त्र धारण करती हैं उसी प्रकार नदियां भी स्वच्छ वस्त्ररूपी जल धारण कर रही थीं, और विधवाएं जिस प्रकार अगम्भीर वृत्तिको धारण करती हैं उसी प्रकार नदियां भी अगम्भीर अर्थात् उथली वृत्तिको धारण कर रही थीं ॥३२।। मेघोंके नष्ट हो जानेसे जिनकी मूर्ति आकृति प्रकाशित हो रही है ऐसी दिशारूपी स्त्रियां अत्यन्त प्रसन्न हो रही थीं और हंसरूप आभरणोंके छलसे मानो एक दूसरेके प्रति हँस ही रही थीं ॥३३॥ उस समय मयूरोंने अपनी केका वाणी छोड़ दी थी, मानो कलहंस पक्षियोंके मधुर शब्दोंसे पराजित होकर ही छोड़ दी हो, सो ठीक ही है क्योंकि समयके बलसे सभी बलवान् हो जाते हैं ॥३४॥ चांदनीरूपी रेशमी वस्त्र पहने हुए, देदीप्यमान नक्षत्रोंकी माला (पक्ष में सत्ताईस मणियोंवाला नक्षत्रमाल नामका हार) धारण किये हुए और दुपहरियाके फूल रूप अधरोंसे सहित वह निर्मल शरदऋतुरूपी स्त्री अतिशय सुशोभित हो रही थी ॥३५॥ शरद् ऋतुकी शोभा पाकर आकाशमण्डलमें चांदनीरूपी कीर्तिको फैलाता हुआ चन्द्रमा किसी उत्तम राजाके समान अत्यन्त सुशोभित हो रहा था ॥३६॥ वह शरदऋतु नवोढ़ा स्त्रीके समान
१ किरणा एव पक्षतिः मूलं यस्य । २ वर्षोपलाः ।। ३ निक्षिप्ताः । ४ पयःप्रवाहा इत्यर्थः । ५ पक्षे श्वेतस्थूलवस्त्राः। ६ विधवाया भावः । ७ परस्परहासम् । ८ हंसमण्डनाः प०, इ०, द० । हंसमण्डनात् ल०। ६ मयूररुतानि। १० तारकावली, पक्षे हारभेदः । ११ बन्धूकेषु बान्धवेषु च । १२ झिण्टि, पक्षे शर। १३ विकासः पक्षे कान्तिः। १४ नूतनविवाहिता ।
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