________________
पविशतितम पर्व कलहंसा हसन्तीव विरुतः स्म शिखण्डिनः । अहो 'जडप्रिया यूयमिति निर्मलमूर्तयः॥१६॥ चित्रवर्णा घनाबद्धरुचयो गिरिसंश्रयाः । समं शतमुखेष्वासैबहिणः स्वोन्नति जहः ॥२०॥ 'बन्धूकैरिन्द्रगोपश्रीरातेने वनराजिष । शरल्लक्षम्येव निष्ठयतः ताम्बूलरसबिन्दुभिः ॥२१॥ विकासं बन्धुजीवेषु' शरदाविर्भवन्त्यधात् । सतीव सुप्रसन्नाशा' विपङका विशदाम्बरा ॥२२॥ हंसस्वनानकाकाशकणिशोज्ज्वलचामरा । पुण्डरीकातपत्रासोहिग्जयोत्थेव सा शरत् ॥२३॥ दिशां प्रसाधनायाधाद् वाणासन परिच्छदम् । शरत्कालो २२जिगीषोहि श्लाघ्यो बाणासनग्रहः ॥२४॥ धनावली कृशा पाण्डः प्रासीदाशा विमुञ्चती। घनागमवियोगोत्थचिन्तयेवाकुलीकृता ॥२५॥
नभः सतारमारजे विहसत्कुमुदाकरम् । कुमुदतीवनं चाभाज्जयत्तारकितं नभः ॥२६॥ निर्मल शरीरको धारण करनेवाले हंस मधुर शब्द करते हुए ऐसे जान पड़ते थे मानों अहो तुम लोग जड़प्रिय-मूर्खप्रिय (पक्षमें जलप्रिय)हो इस प्रकार कहकर मयूरोंकी हँसी ही उड़ा रहे हों ।।१९।। जिनका वर्ण अनेक प्रकारका है, जिनकी रुचि-इच्छा (पक्षमें कान्ति) मेघोंमें लग रही है और जो पर्वतोंके आश्रय हैं ऐसे मयूरोंने इन्द्रधनुषोंके साथ ही साथ अपनी भी उन्नति छोड़ दी थी। भावार्थ-उस शरदऋतुके समय मयूर और इन्द्रधनुष दोनोंकी शोभा नष्ट हो गई थी ॥२०॥ वन-पंक्तियोंमें शरद् ऋतुरूपी लक्ष्मीके द्वारा थूके हुए ताम्बूलके रसके बंदोंके समान शोभा देनेवाले बन्धूक (दुपहरिया) पुष्पोंने क्या इन्द्रगोप अर्थात् वर्षाऋतुमें होनेवाले लाल रंगके कीड़ोंकी शोभा नहीं बढ़ाई थी ? अर्थात् अवश्य ही बढ़ाई थी। बन्धक पुष्प इन्द्रगोपोंके समान जान पड़ते थे ॥२१॥ जिस प्रकार निर्मल अन्तःकरणवाली, पापरहित
और स्वच्छ वस्त्र धारण करनेवाली कोई सती स्त्री घरसे बाहिर प्रकट हो अपने बन्धुजनोंके विषयमें विकास अर्थात् प्रेमको धारण करती है उसी प्रकार शुद्ध दिशाओंको धारण करनेवाली कीचड़-रहित और स्वच्छ आकाशवाली शरद् ऋतुने भी प्रकट होकर बन्धुजीव अर्थात् दुपहरिया के फूलोंपर विकास धारण किया था-उन्हें विकसित किया था। तात्पर्य यह है कि उस समय दिशाएं निर्मल थीं, कीचड़ सूख गया था, आकाश निर्मल था और वनोंमें दुपहरियाके फूल खिले हुए थे ।।२२।। उस समय जो हंसोंके शब्द हो रहे थे वे नगाड़ोंके समान जान पड़ते थे, वनोंमें काशके फूल फूल रहे थे वे उज्ज्वल चमरों के समान मालूम होते थे, और तालाबोंमें कमल खिल रहे थे वे छत्रके समान सुशोभित हो रहे थे तथा इन सबसे वह शरदऋतु ऐसी जान पड़ती थी मानो उसे दिग्विजय करनेकी इच्छा ही उत्पन्न हुई हो ॥२३॥ उस शरऋतुने दिशाओं को प्रसाधन अर्थात् अलंकृत करने के लिये वाणासन अर्थात् बाण और आसन जातिके पुष्पों का समूह धारण किया था सो ठीक ही है क्योंकि शत्रुओंको प्रसाधन अर्थात् वश करनेके लिये जिगीषु राजाको वाणासन अर्थात् धनुषका ग्रहण करना प्रशंसनीय ही है ॥२४॥ उस समय समस्त आशा अर्थात् दिशाओं (पक्षमें संगमकी इच्छाओं) को छोड़ती हुई मेघमाला कृश और पाण्डुवर्ण हो गई थी सो उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो वर्षा कालके वियोगसे उत्पन्न हुई चिन्तासे व्याकुल होकर ही वैसी हो गई हो ॥२५॥ उस शरद्ऋतुके समय ताराओंसे सहित आकाश ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो कुमुदिनियों सहित सरोवरकी हँसी ही कर रहा हो
१ जलप्रिया ल०, द०, इ०, स०, अ०, प० । २ मेघकृतवाञ्छाः । ३ इन्द्रचापः । ४ बन्धुजीवकः । 'बन्धूकः . बन्धुजीवकः' इत्यभिधानात्। ५ बन्धूक-कुसुमेषु, पक्षे सुहृज्जीवेषु। ६ पुण्यागङ्नेव । ७ सुप्रसन्नदिक्, पक्षे सुप्रसन्नमानसा। सुप्रसन्नात्मा-ल०। ८ विगतकर्दमा, पक्षे दोषरहिता। ६ पक्षे निर्मलवस्त्राः । १० अलंकाराय । जयार्थं च । ११ झिण्टिकुसुमसर्जककुसुमपरिकरम् । पक्षे धनु:परिकरम् । १२ जेतुमिच्छोः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org