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श्री भगवजिनसेनाचार्यविरचितम् महापुराणम्
[द्वितीयो भागः] अथ षड्विंशतितमं पर्व
अथ चक्रधरः पूजां चक्रस्य विधिवद् व्यधात् । सुतोत्पत्तिमपि श्रीमान् अभ्यनन्ददनुक्रमात् ॥१॥ ना'दरिद्रीज्जनः कश्चिद् विभोस्तस्मिन् महोत्सवे । दारिद्युमथिलाभे तु जातं विश्वाशितं भवे ॥२॥ चतुष्केषु च रथ्यासु' पुरस्यान्तर्बहिः पुरम् । पुजीकृतानि रत्नानि तदाथिभ्यो ददौ नृपः ॥३॥ अभिचार क्रियेवासोच्चक्रपूजास्य विद्विषाम् । जगतः शान्तिकर्मेव जातकर्माप्यभूत्तदा ॥४॥ ततोऽस्य दिग्जयोद्योगसमये शरदापतत् । जयलक्ष्मीरिवामुष्य प्रसन्ना विमलाम्बरा ॥५॥ अलका इव संरेजुः अस्या० मधुकरवजाः । सप्तच्छदप्रसूनोत्थरजोभूषितविग्रहाः ॥६॥ प्रसन्नमभवत्तोयं सरसां सरितामपि । कवीनामिव सत्काव्यं जनताचित्तरञ्जनम् ॥७॥ सितच्छदावली रेजे सम्पतन्ती समन्ततः । स्थूलमुक्तावली नद्धा कण्ठिकेव शरच्छियः ॥८॥
अथानन्तर श्रीमान् चक्रवर्ती भरत महाराजने विधिपूर्वक चक्ररत्नकी पूजा की और फिर अनुक्रमसे पुत्र उत्पन्न होनेका आनन्द मनाया ॥१॥ राजा भरतके उस महोत्सव के समय संसार भरमें कोई दरिद्र नहीं रहा था किन्तु दरिद्रता इस बातकी हो गई थी कि धन देने पर भी उसे कोई लेनेवाला नहीं मिलता था। भावार्थ-महाराज भरतके द्वारा दिये हुए दानसे याचक लोग इतने अधिक संतुष्ट हो गये कि उन्होंने हमेशाके लिये याचना करना छोड़ दिया ॥२॥ उस समय राजाने चौराहोंमें, गलियोंमें, नगरके भीतर और बाहर सभी जगह रत्नाक ढर किये थे और वं सब याचकोंके लिये दे दियं थे ॥३॥ उस समय भरतन जा चक्ररत्नकी पूजा की थी वह उसके शत्रुओंके लिये अभिचार क्रिया अर्थात् हिंसाकार्यके समान मालूम हुई थी और पुत्र-जन्मका जो उत्सव किया था वह संसारको शान्ति कर्मके समान जान पड़ा था ।।४॥ तदनन्तर भरतने दिग्विजयके लिये उद्योग किया, उसी समय शरदऋतू भी आ गई जो कि भरतकी जयलक्ष्मीके समान प्रसन्न तथा निर्मल अम्बर (आकाश) को धारण करनेवाली थी॥५॥ उस समय सप्तपर्ण जातिके फलोंसे उठी हुई परागसे जिनके शरीर सुशोभित हो रहे हैं ऐसे भूमरोंके समूह इस शरद् ऋतुके अलकों (केशपाश) के समान शोभायमान हो रहे थे ॥६॥ जिस प्रकार कवियोंका उत्तम काव्य प्रसन्न अर्थात् प्रसाद गुणसे सहित और जनसमूहके चित्तको आनन्दित करनेवाला होता है उसी प्रकार तालाबों और नदियोंका जल भी प्रसन्न अर्थात् स्वच्छ और मनुष्योंके चित्तको आनन्द देनेवाला बन गया था ॥७॥ चारों ओर उड़ती हुई हंसोंकी पंक्तियां ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो शरदऋतुरूपी लक्ष्मी
१ दरिद्रो नाभूत् । नो दरिद्री जनः ल । न दरिद्री जनः द०, इ०, अ०, ५०, स० । २ याचकजनप्राप्तौ । ३ सकलतृप्तिजनके। ४ चतुष्पथकृतमण्डपेषु । ५ वीथिषु । ६ 'बहिः पर्ययां च' इति समासः । ७ मारणक्रिया । ८ आगता । ६ निर्मलाकाशा निर्मलवसना च । १० शरल्लक्ष्म्याः । ११ आच्छादित । १२ हंसपङ्क्तिः ।
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