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विषय
उत्तर में गणधर स्वामीने जयकुमारका विस्तृत चरित कहा । काशीराज प्रकंपन की सुपुत्री सुलोचनाने स्वयंवर मंडप में जयकुमारके गलेनें वरमाला डाल दी। ३५१-३०५ चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्व
स्वयंवर समाप्त होते ही चक्रवर्ती भरत के पुत्र प्रकीर्ति और जयकुमारके बीच घनघोर युद्ध हुश्रा । श्रन्तमें जयकुमार विजयी हुए । प्रकंपन तथा भरतकी दूरदशितासे युद्ध शान्त हुआ तथा दोनोंका मनमुटाव दूर हुआ । पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्व
कंपनने पुत्री के पील और संतोषी प्रशंसा की तथा अर्ककीर्तिकी प्रशंसा कर उन्हें शांत किया । तथा चक्रवर्ती भरतके पास दूत भेजकर अपने अपराधके प्रति क्षमायाचना की । चक्रवर्तीने उसके उत्तरमें प्रकंपन और जयकुमारकी बहुत ही प्रशंसा की ।
महापुराणम्
३८६-४२४
जयकुमार और सुलोचनाका प्रेममिलन जब जयकुमारने अपने नगरकी ओर वापिस श्रानेका विचार प्रकट किया तब अपने उन्हें बड़े वैभवके साथ बिदा किया। मार्ग में जयकुमार चक्रवर्ती भरत से मिलनेके लिए गये। चयतीने उनका बहुत सत्कार किया। अयोध्यासे लौटकर जब जयकुमार अपने पड़ावकी श्रोर गंगाके मार्ग से जा रहे थे तब एक देवीने मगरका रूप धरकर उनके हाथीको ग्रस लिया जिससे जयकुमार हाथी सहित गंगा में डूबने लगे तब सुलोचनाने पंचनमस्कार मंत्र की आराधनासे इस उपसर्गको बूर किया।
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४२५-४३१
बड़ी धूमनाम के साथ जयकुमारने हस्तिनापुर प्रवेश किया। नगरके नरनारियोंने सुलोचना और जयकुमारको देखकर अपने नेत्र सफल किये। जयकुमार ने हेमादादिके समक्ष ही सुलोचना
४३२-४४०
विषय को पटरानीका पट्ट बांधा और बड़े वैभवके साथ सुखसे रहने लगे ।
इधर किसी कारणवश सुलोचनाके पिता अपनको संसारसे विरक्ति हो गई। उन्होंने वैराग्य भावनाका चिन्तन कर अपनी विरक्तिको बढ़ाया तथा रानी सुप्रभाके साथ दीक्षा धारणकर निर्वाण प्राप्त किया । सुप्रभा यथायोग्य स्वर्ग में उत्पन्न हुई।
जयकुमार और सुलोचना के विविध भोगोंका वर्णन ।
४४२-४४३
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४४३-४४५
पट्चत्वारिंशत्तम पर्व
किसी एक दिन जयकुमार अपनी प्राणवल्लभा सुलोचनाके साथ मकानकी छतपर बैठे हुए थे कि अचानक उनकी दृष्टि प्रकाशमार्गसे जाते हुए विद्याधरदम्पतिपर पड़ी दृष्टि पड़ते ही 'हा मेरी प्रभावती' कहकर जयकुमार मूच्छित हो गये और सुलोचना भी 'हा मेरे रतिवर' कहती हुई मूच्छित हो गई । उपचारके बाद दोनों सचेत हुए जयकुमारने सुलोचनासे मूच्छित होनेका कारण पूछा तब वह पूर्वभवका वृत्तान्त कहने लगी। विस्तारके साथ दोनोंकी भवावलिका वर्णन ४४६-४७९
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सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व
जयकुमार और सुलोचना पूर्व भवकी चर्चा कर रहे थे, कि जयकुमार ने उससे श्रीपाल चक्रवर्तीके विषय में पूछा । सुलोचनाने अपनी सरस वाणीके द्वारा श्रीपाल चक्रवर्तीका विस्तृत कथानक प्रगट किया । श्रनन्तर दोनों सुखसे अपना समय बिताने लगे ।
देव द्वारा जयकुमारके शीलकी परीक्षा ।
जयकुमारका संसारसे विरक्त होना और भगवान् ऋषभदेव के समवसरण में
गणधर पद प्राप्त करना ।
भरत चक्रवर्तीका दीक्षाग्रहण, केवलज्ञानकी प्राप्ति, भगवान्का अंतिम विहार और निर्वाणप्राप्ति ।
४८०-५००
५०१-५१२
५.१३-५१५
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