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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
रिपुरी नर नाह नरिब । ता पर लयो प्रहार जिनंद ॥४॥ तेंदू वृक्ष सघन बडभाग तप घरि तहाँ भए वैराग ॥ अरुण उदय बेला निर्मली। तहाँ भए प्रभुजी केवली ||५|| छिणक छंड बसुषा को राज गिरि सम्मेद पर मोक्ष समाज ॥ समोसरण जोजन गरि सात ठाऊं जोग कियो कर्मघात | ६ || बोहा
षष्टी स्याम जु जेठ की, भए गर्भ कल्याण । फागुण यदि एकादशी, जनम ज्ञान गुण बांनि ॥७॥ न्यो सावन सुतिनी, तज्यो गेह जगदीस |
रविवार दिना, मुक्ति रमनि के ईश ||८| इति यांस नं
१२. वासुपूज्य स्तवन
दोहा
एक पौन सागर गए, चंपापुरी मारि ।
वासुपूज्य प्रभु धोतरे, त्रिभुवन तारण हार मा
चौपई
सुपूज्य है तात को नाम । जयदेवी माता श्रभिराम ॥
महिष जु सांधण चरननि दिये । सतरि धनक काय जिनमये ॥२शा
बरण बहतरि लाब प्रमान भाव श्री जिनवर की जाति ॥ अरुन वरुण दीस तनुसार । इक्षाक वंश छाछठि गणधार ||३|| सीनि भवांतर तँ प्रभु जानि । घर्यो कुमार काल वंराम ॥ सुंदर नृपति सिद्धारथ पुरी । ताके घर कीनि प्रभु चरी ||४|| दूर्जे दोनो गो क्षीर माहार पाटलतर भए मगन शरीर ॥ निस प्रवेश को समय जानि । प्रभु को भयो केवलज्ञान ||५|| समोसरण को सुनि विस्तार । साढे छह जोजन को सार || प्रासन पद्म पर शुभ ध्यान चंपापुर से मुक्ति मिलान ॥६॥