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वचन कोश
ऐसी ही अनादि की रीति । सबको समझाई परि प्रीति ॥
पृहमि करष उपजाउ जाह । ता फल भषि पोषों निज काय ।। १६ ।। जो लो कृषि फल उपने मही । सोलों एक करो तुम सही || ए अनादि के इक्षुपु दंड ले भावी इनि करो जुषं ॥ १७॥ पेलि पेलि रस काढतु जाव | काया पोषोया कर भाव || सब परमा ग्रानंदित भई । क्षुधा पोर तें वन महि गई ।। १६ ।। लीये इक्ष दंड सब तोरि । रस काढधो तिनको करि मोरि ॥ भक्षित भागी भूख पियास । घर घर भ्रानंद परम हुलास ||१९|| सब जुरि आए देन भसीस 1 तुम इक्ष्वाकु वंश जगदीश || तब तें : 5 होरेरा इलाक तब जान्यो प्रभु यह निज वंश । थाप्यों और तीन श्रवतंस || कुरु रुद्र नाथ ए तीनि । प्रभु ने नाम प्रतिष्ठा दीन ॥ २१ ॥ करे परसपर व्याह विषनि । तजि विश्ववंश सगारथ जोन || प्रभु के राजदृषी नहि कोइ । घरि घरि जैन धर्म लो ||२२|| तिहि पुर मद गयंद सौं रहें । मदिरा नाम और न कहें
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मा सो जो बल बुधि होइ । पुष्प पत्र लें बाधे सोइ ||२३|| दंड सोइ जो जोगी लेइ । भौरख दंड न कोऊ देइ ।। चंचल चोर कटाक्ष तिया के | जो निस चोरें चित्त पिया के ॥ २४ ॥
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चाक बिनु कोइ न प्रान । निशि के समें विरह दुख सांनि ॥ बिरहाकुल पिक बिना न कोइ । बिरहाकुल पिय मिव रट सोइ ।। २५ ।।
दोहा
दीपदु बधिक बसे तहां, ज्यों निस बधे पतंग |
प्रवधपुरी ऐसो चलन, रच्यो ईस मन रंग ॥ २६॥
चौपई
सब होइ चतुर्विध दोन जिनपूज और गुण सनमान ॥ धम्मं राज बरतें संसार । पाप न दीसे कहूं लगार ||२७||
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