Book Title: Kavivar Bulakhichand Bulakidas Evan Hemraj
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
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उपदेश दोहा शतक
२३५
सौवत सुमिनी साप सो, जागत जान्यो झूठ । यह समुझि संसार स्यो, करि निज भाव प्रपूठ ॥२६॥ पढत ग्रंथ प्रति तप तपत, अब लौ सुनी न मोष । दरसन जान चरिस स्यौ, पावत सिव निरदोष ॥२७॥ निकस्यो मंदिर छांडिक, करि कटुव को त्याग । फटी माटि भोगत विर्ष, पर त्रिय स्यौ अनुराग ॥२८॥ पुनि जोग ते संपदा, लहि मानत मन मोष । सो तो लैब है भुगष, परभ नरक निगोद ॥२६॥ कोटि बरस लौ धोइये, प्रसाद तीरम नीर । सदा अपावन ही रहे, मदिरा कुम सरीर ॥३०॥ फटे वसन तनहूँ लट्यो, धरि धरि मामत भीख । बिना दिये को फल यहें, देत फिरत यह सोख ! २६.. पाप प्रॉन पर पीडस, पूनि करत उपमार । यहै मतो सब ग्रंथ को, शिव पक्ष साबन हार ॥३२॥ खोई खेलत बाल बै, तरुनायौ त्रिय साथि । बुषि समै व्यापी जरा, अप्पो न गो जिन नाथ ॥३३।। जा पंह सब जग तगो, भरवं है सब लोग । सा पडे है दु है, कहा करत सठ सोग ॥१४॥ किये देस सब पाप बसि, जीति दसौ दगपाल । सबही देखत लै बस्यै, एक पलक में कास ।।३५11 मिल लोंग बाजा बजे, पान मूलाल फूलेल ।। जनम मरण अरु स्याह मै, है समान सौ खेल ॥३६॥ परम परम सरवरि बसं, सम्जन मीन सुमांनि । तिप बडछी सौ कातिये, मनमय कीर बलानि ॥३७॥ ईद्री रसना जोंग · मन, प्रबल कर्म मैं मोह । ए' पनीत जोत सुभट, करहि मोष की टोह ।।३।। होत सहज उतपात जग, विमसत सहन सुभाइ । मूड पहमति पारि के, अनमि जमि भरमाई ॥३॥

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