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प्रवचनसार भाषा पिद्य)
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यह उतपाद अविनास रस मानिये । इसे जे घिभाव परिणाम राग देष मोह ।। कीये है पिनास फेर उई ने बखानिये । पैर है स्वयंभू भूतानात पर्तमान ॥ अस्पाप म्यय प्रोम बेक समब जानिये ।१४३॥
हा शु स्वभाष उपजत जाहाँ तहां प्रसुख को नास शौम्य रूप परमात्मा, मेक समय परकास ॥ सर्व द्रष्य परजायते उत्पति नास बस्लानि । सातै जीपादिकन की सिद्ध होत परवान ॥४॥ सत्ता बिन कोऊ द्रभ्य, समत न मस्ति स्वरूप । उतपति घिरता नासत, सत्ता सपस पनूप ॥४६॥
छप्पय कबह देव नर कबहु, कबहु तिथंच नरक कबहु । पुग्गल उस्पति नास प्रकट मम जीव करत सबु ॥ कंकणादि भाभणं कनक उत्पाद मास एव । कुडव कर वस राब मृप्तकर विधि द इव ।। यह उदय अम्ति संसार मपि स द्रव्य उर धानिए । उत्पाद नास पुन रहित जबु तमु जग लोप पखानिये ॥४॥
बोहा सर्व द्रष्य परजायं करि उत्पति नाम सिद्धत । निज निब सत्ता सम मबन मह उपदेश करत In
सोरठा उत्पति नास वखानि काहे तुम करत हो। भौम आक परवान से क्यों न हो सबा ||YEn घट कुंडव नर देव कंकरण कुंडल एष दधि । परसे इतने भेव, उस्मारिक गुन रहित र