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प्रवचनसार भाषा (कवित्त बंध)
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भागे लौकिक मुनि का लक्षण झहै है-सर्वथ्या २२
जो निरग्रंथ दिक्षा परि के, बनवास वस मुनि को पर धार संगम मील भमा तप पाचरि जोतिक वैदक मंत्र विचार । सो जग में मुनि लौकिक जान, चारित भिष्ट सिति उचार।
जे मुनिराज विराजत उत्सम, ते तिम्ह को परसंग निवारं ॥५६|| प्रामै भली संगति कोजिए यह दिखाव है--
सुन संमान - गु षिक, सास करिये संभ । जासौ सिव सुख पाइये, चारित रहै मभंग ।।१८।। सीतल जलपर को नमै, सीतलता न घटाय । त्योंही संग समान सौं गुन समान ठहराय ६५El द कपूर घरि छाह जल, मषिक सीत हूं जात । स्यों ही पुर के संग त, माने गुर पद को पात ॥६६॥ पावक संगसि सीत अल, सिनक माझ तप जात । त्यों कुसम के संम स्यौं, गुन प्रयगुनता पात ।।६८१३
वेसरी ईद
पहल सुभपयोग मुनि धारे, क्रम क्रम संवम भाव विचार । जब संजम उतकिष्ट बदाये, तब मुनि परम बसा को पार्य ॥९६२॥
मोहा परम दसा परि के मुनी, पार्य केवल ज्ञान ।
जो प्रानंद मैं सास्वतो, चिदानंद भगवान ।६६३॥ इति श्री शुभोपयोगाधिकार पूर्ण हुवा । मागे पंच रस्न कहे है । पंच गापानि करि । अथ पंच रन नाम कथन ।
बेसरी छंद प्रथम तत्व संसार बखानी, दुतिय मोष तत्व पहिधानी । वितिय तत्व सिद्ध साधन की, सिव साधक पानक फुति कीनं ॥६॥