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प्रवचनसार भाषा (पद्य)
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बेसरी छ। इन्द्रिय विषम भोग के यानी, सपरस वर्न गंध रसवानी। 'बुदे जुदे अपने रस पाहै, एक एक निम गुन अवगाहै ।।५।। तृपति न परत करत सुख सेती निज निज क्रम ते वर्ततेती। छिन में उदय मस्त दिन मांहे, खंड खंड ज्ञान अवगाहै ॥१८॥
दोहा मान प्रक्ष के काज को कर न पक्ष जु मान । निज निज मर्जादा लिये, बरते पक्ष प्रवान !||५६||
सदा प्रीत द्रि ज्ञान की जानहू शक्ति अनंत । सब इन्द्रिन के विषय सुख, एक समय झलकत ।।६०॥
कवित्त बेतन ज्ञान प्रवान सदर भनि सय प्रवान ज्ञान गति बान । लोकालोक प्रवान जय सब तातं शान सर्व गतमांन । ज्यों पावक गभित ईषन के दरसत ईधन ज्ञान प्रवान । स्यों ही छहों द्रव्य जग पूरित व्यापक भयो केबली ज्ञान ॥६१।।
दोहा पीततादि निज गुन लिये, कुजलादि परजाय । ईनही के गर्भित कनक, अधिकन हीन कहाय ।। ६२॥ ज्ञान प्रदानन पास्मा, मानत कुमती कोई । हीन मषिकता मत विषै, साधत मातम सोई ।। ६३५॥ जो लघु मातम ज्ञान, ज्ञान प्रचेतन होय । अधिक ज्ञान से मानिये ज्ञान पनो वह खोइ ।।६।। जहा अधिकता ज्ञान को, तहां जीव लघु होय । जेतो ज्ञाननु अधिक है सपरसादि जह सोई ।।६।। जहां अचेतन द्रव्य है, जान पनों तहां नास । ज्यों पावक गुण ऊनत, परं न जारे पास ॥६६॥