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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज केईक सुरसभा विष, सरन मरन की बात । अपने ही मुख मान सौं, भाषण हैं बहु भौति ।।६।। तो लो हरि को दूत तहाँ, गयौँ फरन के तीर । नति करि भगतिहि वीनयो, मो बच सुनिये धीर ।।६१॥ जुगति होई सौ कीजिए, सुनौं सत्ति प्रवनीस । जिन भाषति नहिं अन्यथा, के है हरि चक्रीस ।।१२।। कुरु मांगल सुभ देश को, सकल राजा तुम लेहु । पांडु पुत्र कुन्ता जनित, मानहुं मौ बक एह ।।३।। भ्रति पञ्च पडिव जहाँ, तहाँ पायो तुम पीर ।। बचत दूत के मुनत इम, बोल्यो कणं सुधीर ॥६॥ प्रब' हम मावन जुगत महिं, न्याय उलंघहि केम । राजा रन के सनमुखें, नीति न त्यागत एव ।।६।। सेबित नृप को रन विर्ष, मत्यन मुन्नै कोइ । जो मुछ तो प्रध लहै, अपषस जग में हो ॥६६॥ निहर्च सेतै गर पर्छ, पाण्डव राज छिनाइ । दै हो नए पद कौरवहि, यही कहीं तुम जाइ ।।६७॥ यो सुनि निकस्यो दूत तब, गयो तहाँ सुविचार जहाँ चक्रो फौरव सहित, बैठे सभा मझार ॥६॥ नति करिक यो बीनयो, सुनौं चक्रि तुम बात । सधि करौ जावन सौं, और भौति नहि सोति ।।६।। सांचि सहित सुनि जिन उकति, केशव ते तुम मति । गंगा सुत को नाश है, नृप सिखंडित सति ।।७।। पृष्टार्जुन के हाथ त, मरण द्रोण की जान । परम पुत्र ते मृत्यु है, सल्य तनी परवान ।।७।। दुरजोधन को पञ्चता, भीमसेन तं गन्य । जयद्रथ पारथ हाथ से, कारन सुत पभिमन्यु ॥७२।। कुरु पुषन को मृत कही, चानडे माग राइ ।। निहरे ते यह जिन कथिस, हम जानत है भाइ ॥७३॥