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पाण्डवपुराण
सरिता रुषिर प्रवाह की
तामैं स्नान करे बिना राछस भूत पिचास गर्न, तिनके तिरपत कारनं
वह है या भू माहि । रहि है कोऊ नांहि ॥६९॥ चाहत बलि नर मांस । मरि है बहु भट रासि ||१२|| निरत करत भकास |
हैं विधवा घास ॥६३॥ प्रात पात्र के भाल । भरून बरुन विकराल ॥१६४॥
जरि है आयुध प्रगनि तें कौरव वंश विसाल । यौं भापत दिग दाहू यह, राज बाल भूचाल ।। ६५ ।।
मुंडि फिकारत राहसी, राजनि की अनिता घनी गिद्ध स्थाल मंडलात अति होइ धरनि लोधनि मई,
कुत्सित रन को खेत है, रुदन करतुद असद
यह कुरु खेत कुखेत । कौरव नासत हेत ॥ ६६ ॥ कुनि दुरजोषन यों को कहो मंत्रि मो इष्ट कितनी है मरि बाहिनी, किसने भट हम सिष्ट ||१७||
सो बोल्यो सुनिये नृपति, जे भूपति बल जोर । दनिवासी से सबै भये विष्णु की प्रोर ||
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सवैधा २३
है बहुत करि सिद्धि कहा, प्रभु काइर स्थारन सूरनि मारैं । एक धनंजय सब भूपत एरण मैं न बराबर सारं ।। कोई समर्थ निवारन कौं नहि, जारि सौं प्रसुरादिक हारें । और हली हल मूसल धारत, जास नसे प्ररि हुँ भय भाई ||
विद्य सुप्रग्य यती प्रमुखा, जिस सिद्धि भई अरिनासक सारी ।
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मार कुमारि सु ताहि निवारण को रण मै नहि सैन हमारी ॥ पावन पान सत्रु बिनासन, भूपरि भूप भुजाबल घारी | मोहि न दीनत कोइ बली, तुम ता समहा बल को मपहारी ||१०० ॥