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कविबर बुलाकीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज छेम विद्धि षय तन ही सन्मुत्र मापक । लही सबसौं प्रति ही बल प्रगटाय के ।। करौं संवु नै रविन भूमि गिराइयो । जुख छोडि सो खेचर, तब ही पालाईयो ।।११।। उठयो मोर खग तोलौं, रण को मद धरें। विधा मांहि सुविसारद, प्रायुष अमरें ।। करयों संबुत सो भी, निरबल ऋद्ध से। कहयो भाजि मत खग रे, अब तू जुद्ध तं ।।११।। बार बार ललकारयौं, भैस भाषि के। गयो भाजि खग ती भी, जीवहिं रात्रि के।। कालसंबर सुत वहीं, प्रायो खगपती । हुनत सत्रु को पहिरै, कंकट दिढ प्रती ।। ११८॥ कुबर संबू के सनमुख, पायौ जुद्ध कौं। धनु चढाइ सरलाइ, बदाइ विरद्ध कौं । तबहि संचु को, बज्जिसु मायो मार हीं । मेघ मोघ ज्यों बरक्त, शर की घार ही ।।११।। भने मार खग प्रति, तू जनक समान है । शुद्ध जुक्त नहिं तो, संग म्याइ प्रमान है ।। फिरि सु जाउ तुम तात, हम सौं मत लरे । तब हि मार सों, खगपति से उच्चर ।।१२।। स्वामि काज के कारी हम सेवग सही, जुस मांहि वच ऐसे काहि ने हैं कहीं । कर निसंक तु तातै धनु संघान ही, जुन माहि नहि दोष भरे प्ररि हान ही ।।१२१॥ सहि मार अरु काल सु संबर गाजि के, करत जुद्ध जुग जोधा प्रायुध साजि के ।। लगी बार बहु रति पति की लरते जबै । तज्यो बनि प्रज्ञपती विनामय तवं ।।१२२।। सकल शस्त्र करि व्यर्थ भयो तब खग पती । पून्मवंत स्यौं चल न बल भरि को रती।