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पुराण
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सर जर्जर मीषम कहत, कौरव पांडव सौजु । अभयदान तुम देह तुम, सवही जीवन कौजु ।।२६४।। करौ परस्पर मित्रता, तजो सत्रुता मित्त । अब लौं क्या ऐसे भये, तुम निहस्य नहि किति ॥२६५।। जे केई रन मैं मरे, गये निंद गति सोइ । तारों कीजो धर्म प्रब, दस लक्षा प्रब लोग।।२६६।। यां अंतर पाग्न जगल. प्राण नभ में संत । शुद्ध चित उत्तिम तपा, महा मुनीन्द्र गुनवंत ।।२६७।। । निकट जाइ के भीष्म के, बोले वचन गंभीर । तो समान पृथिवी विणे, और नहीं महाधीर ॥२६८।। काम मल्ल को जो सुभट, करत चित सौ चूर । ता सम जग मै और नहि, सूरन मैं महसूर ॥२६९।।
सर्वया २३
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भृकुटी कमान तीन तीछन मदन बान कामी नर उर थान मार जान छिन मैं जोषित विरुद्ध जुस नैनन सौं ठान इम ता मैं ठहरा सुर सोई सूरगन मैं बांधि बांधि प्रायुष की पारै उर धीरपन सांधि सांषि साइक जे डार परितन में नदलाल सुनु भने एतौ सूर सूरनाहि धाइ बाइ लरे जोर जो घोर रन में ।।२७० ।।
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दोहरा प्रेसी सुनि गांगेय भट, जुग मुनि के पग दद। नति करि के बोल्यो गिरा, मुन न्यायक गुन'द ॥२७॥ जो भगवन व वन भ्रमत, मैं न लगयौ नृष पर्म । कहा करौं या ठोर प्रय, किहि विधि है शिव समं ॥२७२।।