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हेमराज
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इति श्री पञ्चास्तिकाय ग्रन्थ पांडे हेमराज कृत समाप्त । संवत् १७१९ पौष सुदि ११ वृहस्पतिवार रामपुरा मध्ये लिखायितं पंचास्तिकाय ग्रन्थ संघ ही कला परोपकाराय लिखितं लेखक दीना । शुभं भूयात् ।
ग्रन्थ के प्रारम्भ करते समय कवि ने अपना कोई परिचय नहीं दिया है और टीका को प्रारम्भ कर दिया है ।
भावार्थ – एक परमाणु विर्ष पुद्गल के बीस गुरणन में पंच गुण पाइए । परति दिई कोई एक कोई एक वर्ण पाइए । दोइ गंध विषै कोई एक गंध पाइए। शीत स्निग्ध, शीत दक्ष उष्ण, स्निग्ध, उष्ण-रुक्ष इति चार स्पर्श के जुगलनिविध एक कोई जुगल पाइए। ए पांच गुण जानने । यह परमाणू बंघ भाव के परणया हुआ माब्द पर्याय का कारण है। और जब घ जुषा है तब शब्द तं रहित है। यद्यपि श्रपर्णे स्निग्ध रूम गुणनि अनेक परमाणु रूप स्कंध परिणति घरि करि एक हो है तथापि प्रप स्वभाव को छोड़ता नांही सदा एक द्रव्य है ।
उक्त उदाहरण से ज्ञात होता है कि हेमराज हिन्दी गद्य लेखन में बड़े कुशल विद्वान् थे । तथा सिद्धान्त एवं दर्शन के विषय को भी द्वारा प्रवाह लिखते थे । भागरा के होने के कारण उनकी भाषा में थोड़ा ब्रज भाषा का पुट है ।
८ कर्मकाण्ड भाषा
का कारण पाइ
एक रूप करि
कर्मकाण्ड प्राचार्य नेमिचन्द्र के गोम्मटसार का उत्तर भाग है । गोम्मटसार के दो भाग हैं जिनमें प्रथम जीवकाण्ड तथा दूसरा कर्मकाण्ड है । कर्मकाण्ड ग्रन्थ जैन के अनुसार पाठ कर्म एवं उनकी १४८ प्रकृतियों के वर्णन करने वाला प्रमुख ग्रन्थ है। यह १ अधिकारों में विभक्त है। जिनके नाम निम्न प्रकार है— (१) प्रकृति समुत्कीर्तन (२) बन्धोदय सत्व (३) सत्वस्थानभंग (४) त्रिलिका (५) स्थान समुत्कीर्तन (६) प्रत्यय ( ७ ) भाषचूलिका (८) त्रिकरण चूलिका (६) कर्म स्थितिबन्ध | कर्मों के भेद प्रभेदों का वर्णन करने वाला यह प्रमुख धन्य है । माचार्य नेमिचन्द्र का समय ईस्वी सन् की दशम शताब्दि का उत्तरार्द्ध है ।
पाण्डे हेडराज ने अपनी गद्य टीका के प्रारम्भ मथवा मन्तिम काल का उल्लेख नहीं किया है लेकिन पं० परमानन्द जी शास्त्री ने
भाग में रचना इसका रचना