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हेमराज
दोहा
श्वेताम्बर मत की सुनी, जिनतें हैं मरजाव
गड़ के बउरासी वाव ॥३॥
तिनको कछु संक्षेपता,
पढ़त सुनत जिनके मिटे
कहिए भागम जानि ।
संसे मत पहचानि । ४ । ।
२१५
संसे मत मैं और है, प्रगनित कल्पित बात ।
कौन कथा तिनकी कहै, कहिए जगत विरूपात ॥१५॥
६ परमात्मप्रकाश भाषा
परमात्मप्रकाश दूसरी श्रध्यात्म कृति है जिसे कदिवर हेमराज ने संवत् १७१६ में समाप्त की थी । परमात्मा योगीन्दु की मूल कृति है जिनका पूरा नाम योगिचन्द्र है। इनका समय ईस्वी सन् की छठी शताब्दि का उत्तराधं माना जाता है । परमात्मप्रकाश मूल में अपभ्रंश रचना है जिसमें प्रथम अधिकार में १२६ दोहे तथा दूसरे अधिकार में पड़े हैं ।
पाण्डे हेमराज ने परमात्मप्रकाश पर हिन्दी गद्य टीका लिखकर उसके पठन पाठन को और भी सुलभ बना दिया तथा उसकी लोक प्रियता में वृद्धि की लेकिन प्रवचनसार के समान इसको व्यापक समर्थन नहीं मिल सका। यही कारण है कि जयपुर के शास्त्र भण्डारों में इसकी एक मात्र पाण्डुलिपि उपलब्ध होती हैं और वह भी पूर्ण ही है। इसकी एक पूर्णं पाण्डुलिपि डूंगरपुर के कोटडियों के मन्दिर में तथा दूसरी भादवा ( जयपुर ) ने जिन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध होती है । परमात्माण की गय टीका का एक उदाहरण देखिये -
यानंतर तीन प्रकार का मात्मा के भेद तिनि मै प्रथम ही बहिरात्मा के लक्षण कई है -
पोहा
सूक्तिण वंभुवद अप्पा तिनिहु हवेइ ।
बेहू जि धप्पा जो मुखह, सो जण सूड हवेइ ।। ११।।
मूळ कहिए मिध्यात्व रागादि रूप परिण्या वहिरात्मा श्रर विक्ख कहिए वीतराग निर्विकल्प सुसंवेदन ग्यान रूप परिणया अंतरात्मा और ब्रह्म पर कहिए शुद्धबुद्ध स्वभाव प्रमात्मा शुद्ध कहिए रागादि रहित भर बुद्ध कहिए ग्यानादि सहित