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हे मराज
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को पंडित एवं प्रवीण इन दो विशेषणों के साथ वर्णन किया है। इससे प्रकट होता है कि हेमराज संवत् १७०१ में ही समाज में अच्छा सम्मान प्राप्त कर लिया था तथा उनकी गिनती पंडितों में की जाने लगी थी।
लेकिन हेमराज कद से पापडे कहलाने लगे इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। मुझे ऐसा लगता है कि ये पंडित कहलाते थे पोर धीरे धीरे पाण्डे कहलाने लगे। पौर पाण्डे राजमल के समान इन्हें भी प्रबचनसार, पञ्चास्तिकाय जैसे अन्यों की भाषा टीका करने के कारण इन्हें भी पाण्डे कहा जाने लगा । पाण्डे हेमराज की मन तम निम्न रचनायें उपलब्ध हो चुकी है--
१ प्रवचनसार भाषा (गध)
रखमाकाल सं० १७०९
संवत् १७०४
३ भक्तामर स्तोत्र भाषा (गद्य) ४ भक्तामर स्तोत्र भाषा (पद) ५ चौरासी बोस (सितपट बौरासो बोस) ६ परमात्मप्रकाश भाषा ७ पञ्चास्तिकाय भाषा ८ कमकापा भाषा १ सुगन्ध वशमी व्रत कपा १० नथम्रक भाषा ११ गुरुयुजा १२ नेमिराजमती जसरी १३ रोहिणी व्रत कथा १४ नन्दीश्वर प्रत कमा १५ राजमती लनरी १६ समयसार भाषा
संवत् १७२६
उक्त कृतियों के अतिरिक्त कुछ पद भी राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में संग्र. हीत विभिन्न गुटकों में उपलब्ध होते हैं। उक्त कृतियों का सामान्य परिचय निम्न प्रकार है