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कविवर बलाकीचन्द, मुखाकीदास एवं हेमराज
परत हैं छुत होइ सुरन के सननिये । अमिष के स्वान हार हिंसा ही करतु है ।। ऐसे बान अर्जुन के जम के सिचान कियो । जिन्हें जाइ दावे ते सासन भरतु है ।।२२५१
दोहा इहि विधि सर अर्जुन तन, छुटत लखे दुरजोध । भीषम को निदंत तई, बोल्यो घारत कोध ॥२२६॥ सात सात तुम रण विष, यह प्रारंभ्यो केम । हार होत निज सैन की, जीतत दुर्जन जेम ।।२२७५१ रहि न शके रण मैं जथा, यह पारथ दुखदाइ । ग्रहीं पित्तामह सो करो, जिहि विधि शत्रु नसाइ ।।२२८।। परि प्राये रग सनमुखे, को भट ह निहवंत । तात बांन प्रचंड तजि, हतं शत्रु को संत ।।२२६।।
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यही बात सुनि गंगासुत पारथ प्रत। भयो जुद्ध को उद्दित ई छोभित प्रते ।। तबहि इन्द्र सुन बोल्यो सुनि भीष्मपिता। होह बैस यह सुन्य सबै तुसौ सौं रिला ।। २३०।। जमागार की तीहि तथापि पटाइ हो । अबर्हि मारि जम की पढ़ानेर कराइ हो । वच कठोर कहि अंसे लाग जुद्ध कौं । होत निर्दः भिरत बहार विरुद्ध को ।।२३१।। तब हि द्रोण रण मांहि धनुप चढाइ के। धृष्टद्युम्न के सनमुख मायौ घाई के । करक बान तं गुरु में रथ ध्रुज छेदए । चहुरि धृष्टि नै छत्र धुजा तिस भेदए ।।२३२।।