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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
पोहरा
रजाइ ||३६||
कौरव दल दलमलि घरनि, छाई रेनू प्रकास । दुख कहिये को भूमि मनु चली इन्द्र के पान || ३४ | क्रम तैं कौरव बाहिनी, मिली पनि दल संग | सब ते अधिक समुद्र को, भाइ रली मनु गंग ॥ ३५ ॥ दुरजोधन को मान बहु राख्यो मागध राह कर मिल्यो यो कोरवाह, ज्यों रवि किरण तब पठयो चक्रीस नै, दूत यादवनि तुरित जाइ सों बीनयो, सब सो बचन भो जाधव सुम प करत, श्राज्ञा यह जा बसे किम जलधि तुम, तजि के समुदबिज बसुदेव ए. हम प्रीतम हैं पादि । वांचि प्रापको किहि लये, गए सुछिपि के बादि ||३१|| चरन जुगल चक्रीस के सोवोह यब तनि गवं । जा प्रसाद तें तुम लहो, राज पाट ऐसी सुनि केवल बली बोल्यो कोषित होइ । हरि को सजिया मू विषे चक्री घोर न कोइ ॥ ४१|| ऐसी सुनि फरकत पर दूत भनेँ जातें तुम सागर विष, जाय छिपे तिस पद पंकज सेव तँ, कहीयत कौन सुदोष । भावत हैं तुम पे चढ्यो मगध राइ धरि शेष ||४३|| भुकट-बद्ध नृप संग । करें छिनक में मंग ॥ ४४ ॥
सुख सर्व ॥ ४० ॥
ग्यारह छोहिनि दल सहित मावतं ही तुम गर्व को,
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बच कठौर सुनि दूत के मन इंछत मुख बकत है,
यो सुनि निकस्य दूत तब
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उन्नतता शादवनि की
पासि |
प्रकासि ॥ ३७॥
चक्रेषा ।
अपनों देश || ३६ ||
हि भाइ । भय खाइ ||४२ ||
बोले पांडव साहि मारि निकासी याहि ॥४५॥
भायो ची तीर । बरनी अधिकहि धीर । ४६ ।।