________________
वचन कोश
रवि शशि इनि ऊपर मलें । जोजन एक प्रघो ए चलें ॥ राशि अरु के दो एक जोट । दयो वलें छाया की प्रोट ॥६॥ ज्यों ज्यों छाया टति जार। त्यों त्यों चन्द्र विमल प्रगटाई 1 पूत्वों के दिन केतुम श्रंग सोहत पूरण कहा मयंक ११६१।। यहां काहू जिय संशय भई श्री गुरू सीं उन निती ठई 11
1
सुनियो जो पून्यों को नाथ
केतु तजे हिमकर 1 को साथ ||१२||
सौ का
तै
1
कबहुँ कब स्याम सरूप ।।
तब गुरु कहूँ सुनो बुद्धिवंत । कहीं प्रगट जो कही सिद्धन्त ॥ ६३ ॥ ता दिन दबै राहू की छांह गहन कहूँ प्रवनी सब मांहि ॥ ताको भेद को निरधार । ज्योतिग प्रत्यनि के अनुसारि ॥ ६४ ॥
फिरि परिवा तें दावें केसु । छाया तरउ पति को लेत ||
मावस के दिन सुनौं प्रवीन । दीसें हिमस्करि कला विहीन ||५||
दोहरा
रवि शशि सूरह सत्तर्मो, होइराम एकंत । चन्द्रग्रहण तब होइसी, वादहि वरीय संत ॥६६॥
जासु नहि रवि बसें, तासु अमावसु होइ ॥
राह सूर सो जब मिलें, सूर ग्रहण तब होई ॥६७॥
चोई
I
अब सुनि व्यन्तर देव विचार । कहिये सकल अष्ट परकार !! किनर भी पुरुष बिराम गंधर्व और महोरग नाम ॥८॥ राक्षस अक्ष पिशाब रु भूत । इहि विधि देव कहें गुण जूत ॥ तारक गति लाख जु चारि । लाख चौरासी सब मिलि सार ॥६६॥ निकसि पायरिनि बाहिर परे । तिर्यग मुख दुर्लभ धनुसरे || तिरंग को दुर्लभ नर देह । तिनिकों दुर्लभ खग सुर गेह् ॥ १०० ॥ ॥ ए दुर्लभ सहि भटक्यों सदा । श्रावक कुल उप नहि कदा || कबहू घरपरे नपुंसक रूप । तातें दुर्लभ नारि स्त्ररूप ।। १०१ ।।
#