________________
वनकोश
हो समस्त भयं को ज्ञान । कंठ पाठ सब ग्रन्थ बखान ॥ एह पादुनासारिता बुद्धि | जिननानी तें पाई सुद्धि ||३५|| गुरु लघु रूक्ष उष्ण जो सीत । ति कटुक चिक्कन रस रीति ॥ माठ प्रकार जिनेश्वर कहें। सपरसन रस इन तें गुप लई || ३६ ॥ द्वीप ढाई से जु अभंग । पर से रिद्ध पनि के प्रांग ॥
इह मरजादा पर उतकिष्ट । जोजन नो तैं गणो कनिष्ट || ३७॥ दूरी परसन बुद्धि प्रतक्ष ॥ चिकनी श्रीर कसेली घरे || ३८
सब गुण जुदे कहन को इच्छ मीठो करुबी भी चरपरी
I
रसन भेद ए वर पांच दीप जुगल अर्थ तेलहि सांच ॥ जी कोऊ सब खोलइ तहां । खाद बखाने रिद्धि बल इहां ||३६||
द्वरा रसन बुद्धि बलवंत । जिन श्रागम भाषित धरत ॥ दुर्गंधा अरु परम सुवास । ए नाता के परम विलास ॥। ४० ।। पृथ्वरीति जानें रिद्धिवान यह कहिये बुद्धि द्वरा धाए ॥ रिसभ निषाद गंधार बखांन षडज श्री मध्य धवत जान ॥ ४१ ॥
।
पंचम सकल मिले सुर सात सुनि इनके प्रगटन की जात ॥ पुरुष नाभिख रिव भगवान । सुर निषाद नभ गरज प्रमान || ४२ ||
पंचम कंट कोकिला जेम । सप्तम सुर जु उचारे एम ||
कहां कहां प्रगटै सुर सात पत्र शब्द कहिये विख्यात ||४३|| प्रथम शब्द जो चर्म बजंत । दूजा फूंक तीसरी तन्त ॥ चौथी भांझि मजीरा ताल । पंचम जल तरंग को ख्याल । ४४ ।। पूर्व रीति तें दो लखाव । दूरा श्रवन बुद्धि परभाव || श्वेतपीत श्ररु रक्त सुरंग । हरित कृष्ण गुरु चक्षु अंग ||४५ || वाहा भांति दूर ग्यान रिद्धि दुराव भवलोकन जांन ॥ दश पूरव प्ररु ग्यारह भंग । विनुम सकति विध्वाजा भांग || ४६ ॥ रोहिणी आदि पंचसो जांनि । शुलक यादि सातों मांनि ।। ए देवी सब ता हिंग प्राय करें कटाक्ष हाव प्रभाव ||४७|| तिनिको चलचित्त कदा करत भायें न होइ थिर सदा || भयं सकल मुख कहीं विचार । दमपूर्व बुद्धि के अनुसार ||४८ ||