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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
जाति भरोगी क्य समान, सील श्रुती बधु जोम |
लछि पछाम परवारए, नव गुरण वरहि बखान ।।२६।। पञ्चम प्रभाष
एक बार ईसान स्वर्ग की इन्द्र सभा में वसायुध राजा की प्रशंसा होने लगी । वहां कहा जाने लगा कि उसके समान इस समय कोई सम्यक्त्वी नहीं हैं। इसी बात को चित्रचूल देवता ने सुन लिया। वह बघायुष की प्रशंसा को सहन नहीं कर सका और उससे वाद करने लिए वहां प्रा गया।
चित्रचूल एकति नय, अनेकांत नर राक्ष ।
इनको वाद बखानिये, वात रूप वनाइ ।।२१।। इसके पश्चाद् कवि ने अनेकांत एवं एकांत चर्या को गद्य में लिखा है । इसका एक उदाहरण निम्न प्रकार है
प्रथम हो सुर थाल्यो - हे राजन् जावादिक सप्त तत्व नव पवाथं के विचार विर्ष तुम पंडित हो । तात तुम कहो । पर्याय पर्याइ विर्ष भेद है कि नाहीं । जो तुम कहोगे की पर्यायी ते पर्याय भिन्न है तो वस्तु को प्रभाव होइगौ।
राजा वायुष ने एकान्तवाद कि विरोष में अपना पक्ष बहुत ही सुन्दर शाग्दों में रखा । कषि ने पञ्चास्तिकाप में से कुछ गाथामो को उबत किया है राजा वज्रायुध की बातों से अन्त में वह देव अत्यधिक प्रभावित हुया और निम्न प्रकार अपनी बात कहकर स्वर्ग चला गया -
जैसा स्वर्ग लोक विष इन्द्र महाराज्य न कहा था त सही है। यामैं संदेह नाही । प्रैस निसंदेह सुर भया । कहा की वच्चायुध तुम धन्य हो शुद्ध सम्यगदृष्टी
क्षेमंकर अपने पुत्र वायुध को राज्य सौंपकर स्वयं दीक्षित हो गया। वायुध चक्रवत्ति राजा था । वायुष के पश्चात् सहस्रायुध राजा बना । इसके पश्चात् एक के पीछे दूसरे राजा बनते गये । अन्त में हस्तिनापुर के राजा विश्वसेन हुए उनकी रानी ऐरावती थी। उसी के गर्भ से १६ वें तीर्थकर शांतिनाथ का जन्म हा। जब वे युवा हुए तो विश्वसेन ने उनको राज्यभार सौंप कर स्वयं वैराग्य धारण कर लिया । ये चक्रवत्ति सम्राट् थे । दीर्घकाल तक राज्य सम्पदा भोगने के