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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराजं
चौबीसवां प्रभाव -
पाण्डव वहाँ से द्वारिका भाये। लेकिन द्वारिका जल समान वह नगरी पब राख का कर थी। कवि ने द्वारिका की किया है
चुकी थी स्वर्गपुरी के दशा का अच्छा वर्णन
होते नित जिन श्रानन्द oraft चार्दिक रानी यह, नित करती हास विलास, बिनसि गई ज्यों नौरव रात्रि ।
ने सन विनसे तिनकें सदने
कुवर बुन् । भए दहं वह
यही सुजन की संगति रमया, खिनक छई है सरिता समा ॥
जगत की असारता जान कर पांचों पाण्डव नेमिनाथ के पास पहुंचे और उनकी स्तुति करने लगे। भगवान नेमिनाथ ने पाण्डवों को उपदेशामृत का पान कराया। इस रूप में कवि ने जिन धर्म के मूल तत्वों पर अच्छी तरह प्रकाश डाला है । पाण्डवों ने तीर्थंकर नेमिनाथ से अपने २ पर्वभवों को सुना ।
प्रभाव
इस प्रभाव में भी पाण्डवों एवं प्रोपदी के पूर्वभवों का वर्णन किया हुआ है।
छब्बीसवां प्रभाव
अपने पूर्व भवों को सुनने के पश्चात् पाण्डवों को भी जगत् से वैराग्य हो मय और सभी पांचों भाइयो ने जिन दीक्षा ले ली । कुन्ती द्रोपदी, सुभद्रा भादि रानियों ने भी प्रार्थिका राजमती के पास जाकर संयम धारण कर लिया । तथा सब्वी दीक्षा अंगीकार कर ली। वे घोर तपस्या करने लगे। एक बार उनको तपस्या करते देख दुर्योधन के भानजा को प्रत्यषिक कोष पाया और उसके हृदय में प्रतिशोध की अग्नि जलने लगी । उसने सोलह भूषण मग्नि में लाल करके उनको पहिना दिये। लेकिन के सभी बाहर भावना मात्रे लगे । अन्त में अपने आप पर पूर्ण विजय प्राप्त कर युधिष्ठर मीम एवं अर्जुन ने निर्वाण प्राप्त किया तथा नकुल एवं सहदेव ने सर्वार्थसिद्धि प्राप्त की। वे दोनों मोक्ष प्राप्त करेंगे। महा भायिका राजमती द्रोपदी, कुम्ली स्वर्गं प्राप्त किया। भगवान नेमिनाथ को भी गिरिनार पर्वत से निर्वाण प्राप्त
पुनः तर भव धारण करके
एवं सुभद्रा ने सोलहवा
हुमा भन्त में कवि ने बहुत ही विनय के साथ ग्रंथ समाप्त किया है ।
कवि बुलाकीदास ने तत्कालीन वादशाहं को निम्नं सवैयां छन्द में उसमे किया है
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