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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एव हेमराज
तिनके तन क्य उपज्यो रोग । प्राय बन्यो भरवाको जोग 11 वाय पित्त कफ घेरी देह । भव श्रीगुरु धरि नेह ||२०|| ह्रदयाल दीनों संन्यास । जन जीवन की रही न स ।। पुन्य प्रभाव बेदनी घटी । व्याश्री सकल मुनिवर से हटी ||२१|| क्षुधा पिपासाश्यापी भंग । विनती जु गुरु सो चंग ॥
टली साता श्रायु प्रताप । श्रव कीजें जो प्राज्ञा भाव ||१२|| श्रीगुरु कहें तब भाग्या आन । करि संन्यास मरण बुद्धिमान || ज्यों श्रागे परमादी जीव । प्रतिपालें जो व्रत जोग मदी ।। २३ ।। लोहाचारज घरी न कोन कियो बाहार प्रश्न रुपांन ॥
निवास और अनुसरे ॥ २४|| सोहाचारज सोच बिचार | गुरु तत्रि कीयो देश बिहार ।। संवत पन सात से सात विक्रमराय तनौ विख्यात ॥ ६५०० आए चले नंदीवर ग्राम जाकतें है अगरोहा नाम ॥
वापुर अगरवाल सव बसें । धनकरि सब लोकनि को हमें || २६ ॥ परमत की जिनकें अधिकार और धर्म को ग न सार ॥
अब उनिकि उतपत्ति सांभलें । मत मिथ्यात सकल दल भली ॥२७॥ अगर नाम रिय हैं तप धनी । वनवासी माता वा मनि ॥ एक दिवस बैठें घरि ध्यान । नारी शब्द परयो तब कांन ||२८|| मधुर वचन और ललित यपार | मानों कोकिला कंठ उचार || छूट गमौ रिष ध्यान अनूप | लागे निरिखन नारी रूप ॥२९॥ व्याप्यो काम धीर नहीं घरें । त्रिय प्रति तब बोलन अनुसरं ॥ तब बोली नारी वह जान । नाग तनी मोहि कन्या जान ||३०॥ जो तुम काम सताये देव । जाच्यो मम पिता को करि सेव || निरख वरन न धरि है मांन तुरत करेंगो कन्या दान ||३१|| सुनत वचन उठि ठाडे भए । तत्क्षन नाग लोक को गए || नाम निरित्र तपस्वी भवतार कोनों श्रादर भाव प्रपार ||३२|| तब ऋषिराय प्रार्थना करी । तत्र कन्या हमि जिय में बरी || अब तुम हमें करि दांग ज्यों संतोषु लर्हे मम प्रांत ॥३३॥