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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
जासों थावक भव्य सब, लहइ अरथ तत्काल । धारे ते चित भाव धरि श्रावक धर्म विसाल ॥२३।। जननी के ए वचन सुनि, लीने सोश पढाइ । रचिव को उद्दिम कीयो, धरि के मन वच काइ ॥२४॥
ग्रन्थ की रचना होने के पश्चात् जैनुलदे ने उसे पूर्ण रूप से सुना तथा अपने पुत्र को खूब मांशीर्वाद दिया। उसे मानक जीवन को सार्थक करने वाला कार्य बतलामा । कवि ने यद्यपि मूलग्रन्थ का पद्यानुवाद किया है लेकिन व्रत विधान वर्णन अपनी बुद्धि के अनुसार किया है :
प्रश्नोसरावकाचार का रचनाकाल संवत् १७४७ बैशाख सुदी द्वितीया बुधवार है । कवि ने ग्रन्थ के तीन भाग जहानाबाद दिल्ली में तथा एक भाग पानीपत जलपथ ) में पूर्ण किया था।
सत्रह संताल में दूज सुदी वैशाख । खुपवार भेरोहिनी, भयो समापत भाष ।। १०४।। तीनि हिसे या अन्य के, भए जहानाबाद ।
चौथाई जलपन विष, वीतराग परसाद ।।१०।। नितीय रचना-पाण्डवपुराण
पानीपत में कवि कितने समय तक रहे इसका कहीं उल्लेख नहीं मिलता लेकिन कुछ वर्षों पश्चात् वे वापिस अपनी माता के साथ इन्द्रप्रस्थ वेहली मागये पौर घहीं रहने लगे। वहीं मावा एवं पुत्र का जीवन सुख एवं शान्तिपूर्वक चलता
१. अंसी विधि यह ग्रन्थ सुभ, रच्यो बुलाकोबास ।
सौ सब मैंनुलवे सुम्पो, धारयो परम उल्हास ॥८॥ बहु असोस सुत को बई, बायौ धरम सनेह । धन्य पुत्र तुव अगम को, रथ्यौ ग्रन्थ सुभ एह || बत विधान बरने विविध प्रपनो मति अनुसार। बरमत भूलि परि जहाँ, कविकुल लेहु संबार १०