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कविवर बुलाखीदास, बुलाकीचन्द एवं हेमराज
नारी भएं अधिक दुख खांनि ! दुर्लभ पुरुष वेद प्रधान ॥ कर्म शभाशुभ उदै प्रमाण । पायो नर शरीर शुभयान ॥१०२।। सत गुरु मुख सुनियो उपदेश । जान्यो निज स्वरूपको भेस ।। .... .... .... ....रस विक्रिय क्षेत्र क्रिया सार ॥१०॥ तामें प्रथम बुद्धि रिति कहो । भेद प्रारह नामें लहौं । केवल प्रवधि जानियो दोइ । मनपरजय तीजी भवलोय ।।१०४॥ प्रब दुर्लभ शिव सरवर तीर । जामें विर्षे रहित शुचि नीर || प्रय बह नीर हियो जिय जाइ । कर्म भाताप सकल बुझि जाइ । लेन न जाउ कहूँ तुम दूरि । प्रातम ताल रही भरपूरि ।।१०५।। तू जिय निर्मल हंस सुजांन । और न कोळ ताहि समान ।। पवर लहै मुक्ति को यह सुलभ भावना झकार ॥१०६।।
बोहा ए शुचि बारह भावना, जिनतें मुक्ति निवास । श्री जिनवर के पित्त में, तबही भयो प्रकाश ॥१०७।।
इति मारह भावना
ऋषम देव गृह त्याग वर्णन
चौपई तब माए लोकांतिक देव । कुसुमोजलि दे कौनी सेव ।। पंचम सुरग है सु विशाल । यह नियोग प्राव ति हिफाल ॥१॥ गग प्रनित्य ताकी सब रीति । वरन सुनाऊ महा पुनीत ।। तुम प्रमु हों जिमुवन के ईवा । शक दिवाकर हो रजनीश ।।२।। प्राणनाथ अविचल गुणवृन्द । अनमो ईस्ति मोल पमंद ।। अगम अघट प्रध्यातम रुप । गिरातीत श्री प्रलस भनूप ।।३।। केवल रूपी करूणाकार । नित्यानंद रहित अविकार ॥ घहि विधि बहु स्तत परकार । श्री जिन माम बरनी सार ॥४॥ जो वह बुद्धि म प्रभु को होइ । जगत बीव निस्तरेइ न कोइ । प्रभु समुझाई गए निज शाम । जब बिनराज महाबक साम |