________________
कविवर बुलाखीचन्द बुलाकीदास एवं हेमराज
छही द्रब्य करि मो भरि रह्यो । ज्यों घृत परि पुरण घट घरयो ।। पातें अपर प्रलोकामास । वहा सदा ही सुन्नि निवास ।।५३॥ यह अनादि की थिति : करना । पुन को रि ।। निवमे सिद्धि पता मीम : जीन व ३ पाप गरीस ।। ५४॥ तजो अजोग ठौर जिय जाँन । तब खोकानुभावना बरखांन ॥ भरयू छांडि जो चिर में अंत | तो न बने लोकातु मंतु ।।५५।।
दोहा धर्म करावें पौर करें, क्रिया धर्म नहीं और । धर्म जु जानु जु बस्तु हैं, मान दृष्टि परि सोइ ।।६।। करन करावन झान नहि, पढन अर्थ इह भौर । जान दृष्टि बिनु ऊपज, मोप तरनी जु झकोर ।। ५७।।
सोरठा घमं न किये स्नान, धर्म न काया तप तपै । धर्म न दीये दान, धर्म न पूजा अप जपें ॥५८ः।
बोहरा दान करो पूजा करो, जप तप दिन करि राति ।। जानन वस्तु न वौसरों, यह करणी बड़ यात ॥५६।। धर्म जो वस्तु स्वभाव है, यह जानी जो कोइ । साहि और क्यों बुए, सहज ही उपज सोइ ॥६॥
चौपई द्धिमा प्रादि जो दश विध धर्म । षोडशकारण शिव पद मर्म ॥ दान बिना पूजदिक माव ! नव्यौहार धर्म जु कहाच ।।६।। जो लौहें सराम चारित्र । तो लो इन गुण महा पवित्र ।। चीतराग परित्र जब होइ । प्रापुर्को पाप मुनै सब कोह ॥२॥ यह घमं भावना विचार । करते भवधि पावं पार ।। इह मनादि को व्यापक प्रय । कोऊ तो मति धर्म प्रसंग ॥६३।।