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कविवर बलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
उपजै इनके कर्म अनेक । सो सब पुदगल ननौ विवेक ।। इ छोडि बिन प्रापा गर्ने । श्राश्रय भाव सकल तब बमैं ।। ३२ ।।
दोहा
छिद्र मूदिए नाव के, बहुरि न जल परवेश |
सन्चो सूची काल बल, संवर को यह भेष ।। ३३ ।।
इह जिय संवर प्रापनो, झापा आप मुनेय ।
तो संब
चौपई
मावत देखें जन्त ही अपार । तब जिय ऐसी बुद्धि विचार || मूदे सकल नाम के छिद्र । राग दोष जल करें न षद्र ।। ३५ ।। करण विर्ष मद आठ प्रकार । इति तजि अपनी करे सम्हारि 11 फिरिया तब पेंचं नाव | सुंदर तनी कहावें भाव || ३६॥८
दोहा वियोगी अपने वियोग सौं, न्यारो जानत जोग ।
या देख न सकति हैं, वा गुण धारण जोग ||३७||
इह योगी की रीति है, मिलि करें संजोग ||
तासों निर्जर कहते हैं, विद्युरण होइ वियोग ॥३८॥
चौपई
जनम जनम जे जोरे कर्म । अब जानों इनको गुण मर्म ॥ तानासन को उद्दिम रच्यो । चारित बल रीति तब पच्यो ॥३६॥ उष्ण काल गिरि पर्वत बास । सीत समें जल तट हि निवास | वर्षा ऋतु तरुवर के तले सधैँ परीसह नेकु न ह ॥४॥ मन चंचल को धोने घोर । इन्द्रो दंड देइ प्रति जोर || पूरब कृत थिति पूरी होइ । श्रार्गे बहुरि बर्च को || ४१||