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वचन कोश
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पूर्व लाब सठि लौं जानि । करौ राज श्री कृपानिधान ॥ या नंतर इक दिन जिन राज | बैठे हुते सभा सुख साथ ||१|| नीलंजना नदी को नाम । नृति कर भाई वह ठाम || बीत उपंग यांसुरी वार्ज
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ढोडी यंत्र अमृती राजे ||२||
सुर मंडल बाजे जन तनी । सारंगी पिनाक बहु भनी ||
वति थी।
मृतकुंभ
ए बाजे सब बाजन लाभ । तब मिलि जु प्रलापहिराब ॥
प्रथम सप्त स्वर साधि जु लीन । पुनि मिलि सकल सुर एक कीन ॥ ४ ॥ रंगभूमि पातुर पग धरौ । रव संगति बदन उचरयां ||
सुरसुर कुमकुम धमपि बोलें। बार बार संग लागें ढोलें ||५|| तत भेई ततई तब करें। ततकि तलकि पुष उच्च ॥
अंग मोरि भंवरी जब लई । परि घरिवि मृतक ह्न गई ॥६॥
परमहंस दूजी यति गयो। देखत सवनि प्रभो भो ॥
प्रभु वा मरणा विचारथो चित्त । उर उपज्यो वैराग्य पवित || :
बारह भावना वर्णन
दोहरा
मध्व प्रसरण जग भ्रमण, एक अनंत अशुद्ध । श्राश्रव संवर निर्जरा, लौक धर्म दुर्ल में ||
व वस्तु निश्चल सदा, अधू भाव पजाब | स्कंध रूप जो देखिये, पुद्गल तन विभाव ॥१६॥
चौपई
जिते पदार बल्लभ जनि । गमन नमर सम यस्तो समान ||
अन जीवन जल पटल जु होत । सजन नारि सुत तदित उदोत ||१ जल बुद्द बुद जो बरतें सदा 1 विनासीक थिर नाहीं कश ।। इस जहाँ न उपज्यो मोह | कहें मावना अधिर सोइ ||११|
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