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कविवर बुलाखीदास, बलाकीचन्द एवं हेमराज
होइ अब संबंध तहाँ जो सही । ऐसी जिनवानी तें लहो । एक समें गति बांधे जीव । चार्यों गति में फिर सदीव || जीव देह को त्यागे जन । मानपूरची प्रावं तबै ।। बंधी होइ जोग तिहकाल । ले पहुँचा तहाँ सम्हालि ।।४।। तासौं मूत कहे जमराज । जीव निकास करि दुख काज ।। साढे तीन हाथ की काम । जीव अनेक कहैं मुनि राय ॥४५॥ कृषि ते पोणे जीव मारीर । प्रलप सुकाल काल बलवीर ॥ सबकी सूष तनों सुनिमान । फल कुष्मांड आनि परमान ।।४६।। तृप्ति नहीं भने एक बेर 1 जेबें वुपहर सांझ सबेर । मध्यम वृष्टि मेघ सब करें । धर्म विक्षिप्ति तहों पर बरें ।।४।। ता पीछे होइ छठम काल । दुषमा दुषम महा विकराल ॥ मिथ्या दृष्टि सब जीवनि तनी। धम्म वासना रंच न मनी ॥४८॥ बेटी बहिन न माने कोइ । सवें कुशील नारी नर बोह ।। काल मर्यादा कही श्रुत ज्ञान । बरस हार बीस एक जानि ||Yell हाथ जुगल देही उत्तंग । बीस वरष लों प्राव प्रसंग । जब सहस वर्ष गत होइ । षोडपा बरष प्राद' अवलोइ ।।५।। कृषि विनाष होइ सब ठोर । जीवें जीव माहार अवलोह ।। जलचर नभचर जोवन षाइ । तृप्ति बिना सब क्षुधित फिराई ॥५१|| संजम तप नहीं दीसे रच । पाप अधम्म सनों तहां संच ।। अनुक्रम होइ काल को पन्त । रवि शशि निकट उदत करत ।।५२।। तिहि के तेज सकल को नाम । वृष्याधिक जे सुष निवास । प्रलय समीर बहै परचंड । विनासीक सब कह विहंड ।।५३|| जीव सकल सिथि ऐसी करें । जाइ पतुर्गति में प्रयतरें। अवसपिणि यह काल कहावे । फिरि उप्तसपिणी कास प्रभावे ॥५४॥ ज्यों ज्यों अनुक्रम प्रोरें गिलें । त्यों त्यो उतपिणी उगिलें ॥ छको पांचमों पहिलो जोइ चौयो तीजे के सम होइ ॥५५॥ सीजे में चउबीसी कही । पाप निवार जग निवारण सही ।। ऐसें फिरित रहैं छहकाल 1 है अनादि की प्रसो ख्याल |॥५६॥