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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
विरहमान वरते जिन बीस । सदा साश्वते प्रमु जगदीस 11 एक तनो जब होइ निर्वान । दुजे को होइ गर्भ कल्यान ।।२३।। क्षेत्र सदा अविनाशी जोइ । सदाकाल चौधई तहां होइ ।। विनाशीक तिनि मैं अब लही। भरत ऐरावत दश जे कहीं ।।२४।। कट्सन अविघल दीसें तहां । छहों काल वरते हैं जहां ॥ सुनि सो साठ क्षेत्र को हास 1 तहां सदा चतुधंम काल ॥२५॥ मुक्तिपंच सम्यक परिकार । तहां तें चलतु रुकन समार ।। जब दशमें पंचम परवरें। कोऊण मुक्ति पंथु पगु धरें ।।२६।। जो कोई जीव सम्यक्ती होइ । बारह अनुव्रत पाले सोइ ।। ताके फल थिदेह अवतार 1 घेतनि ह जु करें सम्हालि ११२७।। सुन सों मुक्ति रमरिण को वरें। कर्म उपद्रव सो निजेरें ।। अल्प बुञ्चि गक्षम मम ज्ञान , अढाई दीप तनों बखान ।।८।। कर्यो संक्षेप पर्ने विस्तार । गौरी कहल ग्रन्ध अधिकार ॥ जा कौं सब ब्योरे की चाह । बड़े अन्य देखों प्रवगाह ॥२६॥
इति मानुषोत्तर वर्णन प्रसंख्यात अनंत गणित भेद वणन
या त द्वीप समुद्र जे प्रौर । दुगुणा दुगुण मणि तिनि की दोर ।। असे करि भाष प्रसंष्यात । स्वयंभू रमन प्रत विष्यात ॥१॥ लेपो प्रसंप्यात को गुगौं । जिनवाणी जैसो कछु सुनौं ।।२।। तव पहीले में सरसों भरें। सो सरसों सुर निज करि घरें ॥ द्वीप एक प्रति समुद्र जु एक । सारत जाईय है जु विवेक ।।३।। जांसु द्वीप मैं खूट सोइ । फिरि गरता वाही सम जोइ ।। पूरे होत एक हर करें । सो पहिल गरता में ले भरें ।।४।। अवगरता जो द्वीप समान । जहां सरसौं छूटी ही जान ।। ताकी सरसो लेइ उबाह । एक एक फिरि डारतु जाय ||५||