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विषयानुक्रमणी विदुषः- विदुषी - वैदुषम्' आदि में व को उ तथा 'शुनः- शुनी - यूनः- मघोनः' इत्यादि में व को उ आदेश]
२६. औ-आदेश, अलोप - दीर्घ, 'तिरश्चि - उदीचि - पद्' आदेश, अलोप - अलुप्तवद्भाव, अकारलोप, इय् - उ आदेश पृ०२९४-३१८
['प्रष्ठौहः- प्रष्ठौही' आदि में वा को औ, 'प्रतीचः- प्रतीची - गोऽचः - गोऽची' इत्यादि में अलोप - दीर्घ आदेश, 'तिरश्चः- तिरश्ची - तैरश्च्यम्' इत्यादि में 'तिर्यन्च्' को 'तिरश्च्' आदेश, 'उदीचः- उदीची - औदीच्यम्' इत्यादि में 'उदन्छ’ को ‘उदीचि' आदेश, व्याघ्रपदः- व्याघ्रपदी - सुपदः- कुम्भपदी' आदि में पाद् को पत् आदेश, पाद - पाद्' शब्दों की समानार्थता, ‘राज्ञः- दनः-प्रतिदीना' में अन् के अकार का लोप, इसका अलुप्तवद्भाव होने के कारण धकार को दकारादेश तथा वकार को ऊट आदेश प्रवृत्त नहीं होता | ‘कीलालपः- कीलालपा' इत्यादि में धातुगत आकार का लोप तथा नियौ - नियः-लुवौ - लुवः- सुधियौ - सुधियः - मित्रभुवौ - अतिभुवः' इत्यादि में ईकार को इय् एवं ऊकार को उव् आदेश] २७. 'य - व्' आदेश, धातुवद्भाव, उत्त्व, ‘अक्-क' प्रत्यय, इकारादेश
पृ० ३१८ - ३९ [ग्रामण्यौ - ग्रामण्यः - यवल्वौ - यवल्वः' आदि में पाणिनीय यविधान का वैचित्र्य, 'ध्रुवौ - ध्रुवः' इत्यादि में धातुवद्भाव के अतिदेश से ऊ को उवादेश, अतिदेशकरण का औचित्य, 'स्त्रियौ - स्त्रियः- स्त्रियम् - स्त्रियः' में धातुवद्भाव के फलस्वरूप ई को इयादेश, पाणिनीय इयङ् - उवङ् - विधान, 'हे भोः । हे भवन्!' में वन्त् को वैकल्पिक उ - आदेश, पाणिनि द्वारा इसके निष्पादन का अभाव, ‘उच्चकैःनीचकैः- सर्वकः- विश्वकः- मयका - पचतकि' आदि में अक् प्रत्यय, यावकःमणिकः- अश्वकः- वृक्षकः - एहकि- देवदत्तकः' में क-प्रत्यय तथा ‘सर्विका - उष्ट्रिका - पाचिका - पाठिका' आदि में अकार को इकारादेश]