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विषयानुक्रमणी
[द्वितीयः सखिपादः] २१. अग्निसंज्ञा का निषेध तथा नदीवद्भाव पृ० १८६ - २०१
[कातन्त्रकार के अनुसार 'सखि' शब्द की अग्निसंज्ञा नहीं होती तथा पाणिनि के अनुसार घिसंज्ञा, अग्निसंज्ञा की अन्वर्थता तथा घिसंज्ञा की कृत्रिमता, 'सख्यासख्ये' में गुणाभाव, 'हे स्त्रि ! स्त्रियै, स्त्रीणाम्' आदि में नदीवद्भाव, तदनुसार ह्रस्वऐ-नु आगम आदि कार्यों की प्रवृत्ति, श्रीणाम्-श्रियाम्, भ्रूणाम्-ध्रुवाम्, बुद्ध्यै -बुद्वये, श्रियै-श्रिये, धेन्वै-धेनवे' आदि में वैकल्पिक नदीवद्भाव] ___२२. लोप, प्रत्ययलक्षणप्रयुक्त कार्यों का निषेध, मु-आगम, तु-आगम, ई-शि-आदेश, नु-आगम, अन् आदेश
पृ० २०१ - २५ [पयः- तत्-सुसखि' इत्यादि में सि-अम् प्रत्ययों का लोप तथा प्रत्ययलक्षण मानकर प्राप्त दीघदिशादि कार्यों का निषेध, 'कुण्डम्-अतिजरम्' आदि में मु-आगम, 'अन्यत् इतरत्-कतमत्' आदि में तु-आगम, पाणिनि द्वारा विहित ‘अड्' आदेश का लाघव-गौरव 'कुण्डे-पयसी' आदि में औ को ई-आदेश, ‘पद्मानि-पयांसि' में 'जस्शस्' को शि-आदेश-नु-आगम, पाणिनि का नुमागम, 'वारिणी-वारिणे' इत्यादिमें नुआगम, ‘अस्थना-दना-अक्ष्णा' आदि में इ को अन्- आदेश, पाणिनीय अनादेश का विधान तथा न् -आदेश में लाघव होने पर भी 'अन्' आदेश के विधान का औचित्य] २३. पुंवद्भाव, दीर्घ, उपधादीर्घ, अन्-आदेश, ऐ-आदेश
पृ० २२५ - ५० ['कर्म-कर्तृणा कुलेन, मृदवे-मृदुने वस्त्राय'आदि में वैकल्पिक पुंवद्भावकातन्त्रकार द्वारा वा-निर्देश से एवं पाणिनि द्वारा गालव आचार्य के उल्लेख से, 'अग्नीनाम्-धेनूनाम्' आदि में नु-आगम से पूर्व इ-उ को दीघदिश, पञ्चानाम्-सप्तानाम्' आदि में न् की उपधा अ को दीर्घ, 'राजा-सामानि' आदि में घुटसंज्ञक प्रत्ययों के