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कातन्त्रव्याकरणम्
१९. हस्व, लोप, औकारादेश, स् को नू, टा को ना, अदस् को अमु, इ को ए, उ को ओ, अकारलोप, औ आदेश, अ को उ, आ आदेश तथा सिलोप पृ० १२६ - ५७
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['हे नदि ! हे वधु !' में ई- ऊ वर्णों का ह्रस्व, 'नदीम्-नदी:' आदि में अम्शस् प्रत्ययघटित अ का लोप पाणिनि के पूर्वरूप - पूर्वसवर्णदीर्घ- विधान में गौरव, अपाणिनीय होने के कारण वररुचि के मत का खण्डन, 'नदी -मही' आदि में सिलोप ‘ईकारात्’ पाठ एवं ‘लक्ष्मी' शब्द को अव्युत्पन्न माने जाने के विषय में विचारसमाधान, ‘वाक्-तडित्’ में सिलोप, सूत्रकार द्वारा प्रकृत सूत्र बनाए जाने का औचित्य, 'अग्निम्-पटुम्' आदि में अम्-प्रत्यय के अकार का लोप, 'अग्नी-पटू' आदि में औ को इ, ‘अग्नीन्-पटून्' आदि में शस्प्रत्ययस्थ स् को नू, हेमकर आदि आचार्यों का अभिमत, ‘अग्निना-पटुना' आदि में टा को ना आदेश, टा के लिए पाणिनि - द्वारा आङ् का प्रयोग, ‘अमुना' आदि में अदस् को अमु आदेश, 'अग्नयः, पटवः' आदि में इ को ए तथा उ को ओ आदेश, 'हे अग्ने ! हे धेनो ! में इ को ए-उ को ओ ‘अग्नये, पटवे' आदि में इ को ए-उ को ओ, 'अग्नेः, धेनोः आदि में ङस्-प्रत्ययस्थ अ का लोप, 'अग्नौ -धेनौ' आदि में इ-उ-ङि को औकार आदेश, 'सख्युः, पत्युः ' आदि में ङस्प्रत्ययघटित अ को उ, 'पितुः, मातुः' आदि में ऋ-अ को उ 'पितामाता' में ऋ को आ आदेश ]
२०. अग्निवद्भाव, अर्-आर् आदेश, सिलोप, नु - आगम, लुक् तथा आम् आदेश पृ० १५७ - ८५
[ कातन्त्रकार का अतिदेशविधानरूप प्रक्रियागौरव तथापि उसके विधान की अनिवार्यता, ‘पितरौ-पितरः - पितरि - मातरि' में ऋ को अर् आदेश, द्वितीया - बहुवचन में 'पितरः ' पद की सिद्धि, 'कर्तारौ - कर्तारः - स्वसारौ - स्वसार:' में ऋ को आर् आदेश, 'धातोः - तृशब्दस्य' पदों का सार्थकत्व, 'हे कर्तः ! हे स्वसः !' आदि में ऋ को अर्, 'हे वृक्ष ! हे अग्ने !' आदि में सिलोप, 'वृक्षाणाम् - अग्नीनाम्' आदि में नु-आगम, ‘त्रयाणाम्’आदि में नु-आगम, 'ष्णान्ताया:' में अन्तपद की सार्थकता, लोकव्यवहार के अनुसार संख्यार्थक शब्दों का उपादान, 'कति-पञ्च' आदि शब्दों में जस्-शस् का लुक् तथा 'नियाम्-ग्रामण्याम्' आदि में ङि को आम् आदेश ]