________________
कातन्त्रव्याकरणम्
१०. अनुषङ्गसंज्ञा
पृ० ४९-५१ [लिङ्ग या धातुगत अन्तिम व्यञ्जन वर्ण से पूर्ववर्ती नकार की अनुषङ्ग संज्ञा, पाणिनि द्वारा प्रयोग न किए जाने पर भी व्याख्याकारों द्वारा इसका स्मरण, पूर्वाचार्यकृत प्रयोग] ११. धुसंज्ञा
पृ० ५१-५४ [२५व्यञ्जन वर्णों की धुट् संज्ञा, उसकी कृत्रिमता, पाणिनीय व्याकरण में इसके लिए झल् प्रत्याहार का प्रयोग] १२. दीर्घविधान
पृ० ५४-६० [लिङ्ग के अन्तिम ह्रस्व अकार का घोषवत् विभक्तियों तथा जस् के परे रहने पर दीघदिश-आभ्याम्, वृक्षाय, वृक्षाणाम्, वृक्षाः आदि में, कातन्त्र में कार्यों (स्थानी) का प्रथमान्त तथा कार्य (आदेश) का द्वितीयान्त निर्देश, पाणिनीय व्याकरण में स्थानी का षष्ठ्यन्त तथा कार्य का प्रथमान्त निर्देश]
१३. स् को न आदेश, अकारलोप, भिस् को ऐस् तथा अकार को एकार आदेश
पृ० ६०-७२ [पाणिनि-शर्ववर्मा की सूत्ररचनाशैली में भिन्नता, कातन्त्रकार के अनुसार 'वृक्षेभिः' आदि शब्दरूपों का भी साधुत्व, कातन्त्रीय निर्देशों की सरलता, विविध आचार्यों के उद्धरण] १४. सि को आत्, ङस् को स्य, टा को इन एवं डे को य आदेश
पृ० ७२-७९ [इन चार आदेशों के लिए कातन्त्र में चार तथा पाणिनीय व्याकरण में दो सूत्र, कातन्त्रीय विधान में क्रमव्यत्यास से विशिष्ट कार्यों का ज्ञापन, तदनुसार द्वितीयाबहुवचन में पितरः, अतिजरसिन, अतिजरस्स्य, तथा भिक्षुष्य शब्दों की साधुता, बालावबोधार्थ पृथक् सूत्रों की रचना]