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२४ कि पूजन करना जिसप्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्योंका धार्मिक कर्म है उसीप्रकार वह शूद्रोंका भी धार्मिक कर्म है।
इसी धर्मसंग्रहश्रावकाचारके ९ वें अधिकारके श्लोक नं. १४२ में, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, श्रीजिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेवालेके दो भेद वर्णन किये हैं-एक नित्यपूजन करनेवाला, जिसको पूजक कहते हैं । और दूसरा प्रतिष्ठादि विधान करनेवाला, जिसको पूजकाचार्य कहते हैं। इसके पश्चात् दो श्लोकोंमें, ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकको लक्ष्य करके, प्रथम भेद अर्थात् पूजकका स्वरूप इसप्रकार वर्णन किया है:"ब्राह्मणादिचतुर्वर्ण्य आद्यः शीलवतान्वितः । सत्यशोचढाचारो हिंसाद्यव्रतदूरगः ॥ १४३ ॥ जात्या कुलेन पूतात्मा शुचिर्वन्धुसुहजनैः ।
गुरूपदिष्टमंत्रेण युक्तः स्यादेष पूजकः ॥ १४४ ॥" अर्थात्-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चारों वर्गों से किसी भी वर्णका धारक, जो-दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदंडविरति, सामायिक, प्रोषधोपवास), भोगोपभोगपरिमाण और अतिथिमंविभाग, इसप्रकार सप्तशील व्रतकर सहित हो, सत्य और शौचका दृढ़तापूर्वक (निरतिचार ) आचरण करनेवाला हो, मत्यवान् शौचवान् और दृढाचारी हो, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह, इन पांच अव्रतों (पापों) से रहित हो, जाति और कुलसे पवित्र हो, बन्धु मित्रादिकसे शुद्ध हो और गुरु उपदेशित मंत्रसे युक्त हो वा ऐसे मंत्रसे जिसका संस्कार हुआ हो; वह उत्तम पूजक कहलाता है । इसीप्रकार पूजासार ग्रंथमें भी पूजकके उपर्युक्त दोनों भेदोंका कथन करके, निम्न लिखित दो श्लोकोंमें निर:पूजकका, उत्कृष्टापेक्षा, प्रायः समस्त यही स्वरूप वर्णन किया है। यथाः
"ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रो वाऽऽद्यः सुशीलवान् । दृढव्रतो दृढाचारः सत्यशौचसमन्वितः॥१७॥