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उक्त्वा जिनेंद्रपादाब्जोपरि क्षिप्वाशु पंकजम् । गतो, मुग्धजनानां च भवेत्सत्कर्म शर्मदम् ॥ १६॥"
करकुडुकथा अर्थात्-जब सुगुप्तिमुनिके द्वारा ग्वालेको यह मालूम होगया कि, सबसे उत्कृष्ट जिनदेव ही हैं-तब उस ग्वालेने, श्रीजिनेंद्रदेवके सन्मुख खड़े होकर और यह कहकर कि 'हे सर्वोत्कृष्ट मेरे इस कमलको स्वीकार करो' वह कमल श्रीजिनदेवके चरणोंपर चढा दिया और इसके पश्चात् वह ग्वाला मंदिरसे चला गया । ग्रन्थकार कहते हैं कि, भला काम (सत्कर्म) मूर्ख मनुष्योंको भी सुखका देनेवाला होता है । इसीप्रकार शद्रोंके पूजन सम्बंधमें और भी बहुतसी कथाएं हैं। __ कथाओंको छोड़कर जब वर्तमान समयकी ओर देखा जाता है, तब भी यही मालूम होता है कि, आज कल भी बहुनसे स्थानोंपर शूद्रलोग पूजन करते हैं । जो जैनी शूद्र हैं वा शूद्रोंका कर्म करते हुए जिनको पीढ़ियाँ बीत गई, वे तो पूजन करते ही हैं; परन्तु बहुतसे ऐसे भी शूद्र हैं जो प्रगटपने वा व्यवहारमे जैनी न होने वा न कहलाते हुए भी, किसी प्रतिमा वा तीर्थस्थानके अतिशय ( चमत्कार ) पर मोहित होनेके कारण, उन स्थानोंपर बराबर पूजन करते है-चांदनपुर (महावीरजी), केसरियानाथ आदिक अतिशय क्षेत्रों और श्रीसम्मेदशिखर, गिरनार आदि तीर्थस्थानोंपर ऐसे शूद्रपूजकोंकी कमी नहीं है। ऐसे स्थानोंपर नीच ऊंच सभी जातियाँ पूजनको आती और पूजन करती हुई देखी जाती हैं। जिन लोगोंको चैतके मेलेपर चांदनपुर जानेका सुअवसर प्राप्त हुआ है, उन्होंने प्रत्यक्ष देखा होगा अथवा जिनको ऐसा अवसर नहीं मिला वे जाकर देख सकते हैं कि चैत्रशुक्ला चतुर्दशीसे लेकर तीन चार दिनतक कैसी कैसी नीच जातियोंके मनुष्य और कितने शूद्र, अपनी अपनी भाषाओं में अनेक प्रकारकी जय बोलते, आनंदमें उछलते और कूदते, मंदिरके श्रीमंडपमें घुस जाते हैं और वहांपर अपने घरसे लाये हुए द्रव्यको चढ़ाकर तथा प्रदक्षिणा देकर मंदिरसे बाहर निकलते हैं । बल्कि वहां तो रथोत्सवके समय यहांतक होता है कि मंदिरका व्यासमाली,