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भी नित्यपूजनमें समाविष्ट हैं ।" जैसा कि निम्नलिखित प्रमाणोंसे प्रगट है:
“बलिस्नपननाट्यादि नित्यं नैमित्तिकं च यत् । भक्ताः कुर्वन्ति तेष्वेव तद्यथास्वं विकल्पयेत् ॥”
— सागारधर्मा० अ० २ ० २९ ।
“बलिस्नपनमित्यन्यत्रिसंध्यासेवया समम् । उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच्च तादृशम् ॥”
- आदिपुराण० अ० ३८, लो० ३३ । ऊपरके इस कथनसे यह भी स्पष्टरूपसे प्रमाणित होता है कि अपने पूज्यके प्रति आदर सत्काररूप प्रवर्त्तनेका नाम ही पूजन है । पूजा, भक्ति, उपासना और सेवा इत्यादि शब्द भी प्रायः एकार्थवाची हैं और उसी एक आशय और भावके द्योतक हैं । इसप्रकार पूजनका स्वरूप समझकर किसी भी गृहस्थको नित्यपूजन करनेसे नहीं चूकना चाहिये । सबको आनंद और भक्तिके साथ नित्यपूजन अवश्य करना चाहिये ।
शूद्राऽधिकार |
यहांपर, जिनके हृदय में यह आशंका हो कि, शूद्र भी पूजन कर सकते हैं या नहीं ? उनको समझना चाहिये कि जब तिर्यंच भी पूजनके अधिकारी वर्णन किये गये हैं तब शूद्र, जो कि मनुष्य हैं और तिर्यंचोंसे ऊंचा दर्जा रखते हैं, कैसे पूजनके अधिकारी नहीं हैं ? क्या शूद्र जैनी नहीं हो सकते ? या श्रावकके व्रत धारण नहीं कर सकते ? जब शूद्रोंको यह सब कुछ अधिकार प्राप्त है और वे श्रावकके बारह व्रतोंको धारणकर ऊंचे दर्जेके श्रावक बन सकते हैं और हमेशासे शुद्र लोग जैनी ही नहीं; किन्तु ऊंचे दर्जेके श्रावक ( क्षुल्लकतक ) होते आये हैं, तब उनके लिये पूजनका निषेध कैसे हो सकता है ? श्रीकुन्दकुन्द मुनिराजके वचनानुसार, जब विना पूजनके कोई श्रावक हो ही नहीं सकता, और