________________
योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध
(७) वात्सल्य - वात्सल्य का अर्थ होता है- 'प्रेम'। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र ने कहा है- स्वधर्मियों एवं गुणियों के प्रति निष्कपट भाव से प्रीति रखना और उनकी यथोचित सेवा-शुश्रुषा करना वात्सल्य है।४१
(८) प्रभावना - साधना, सदाचरण और ज्ञान की सुरभि द्वारा जगत के अन्य प्राणियों को धर्म-मार्ग की ओर आकर्षित करना प्रभावना है। प्रभावना के आठ प्रकार बताये गये हैं- (क) प्रवचन, (ख) धर्म-कथा, (ग) वाद, (घ) नैमित्तिक, (ङ) तप, (च) विद्या, (छ) प्रसिद्ध व्रत ग्रहण करना, (ज) कवित्व शक्ति। सम्यग्दर्शन की साधना के षट्स्थान
___जैन साधना में षट्-स्थानकों पर दृढ़ प्रतीति सम्यग्दर्शन की साधना के आवश्यक अंग माने गये हैं। जिस प्रकार बौद्ध साधना के अनुसार दुःख है, दु:ख का कारण है, दु:ख-निवृत्ति हो सकती है और दुःख-निवृत्ति के मार्ग हैं--- इन चार आर्यसत्यों की स्वीकृति सम्यग्दृष्टि है। उसी प्रकार जैन साधना में षट्-स्थानकों की स्वीकृति सम्यक्- दृष्टि है४३- (क) आत्मा है। (ख) आत्मा नित्य है। (ग) आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है। (घ) आत्मा कृत कर्मों के फल का भोक्ता है। (ङ) आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सकता है और (च) मुक्ति के उपाय हैं।
सम्यग्ज्ञान जैन योग-साधना में सम्यग्ज्ञान को साधनात्रय में स्थान दिया गया है। साधना मार्ग पर चलनेवाले योगी के लिए जैनाचार्यों का प्रथम संदेश है- प्रथम ज्ञान और तत्पश्चात् अहिंसा का आचरण । संयमी साधक की साधना का यही क्रम है-ऐसा कहा गया है। जैन साधना में प्रविष्ट होने की पहली शर्त यही है कि व्यक्ति अपने अज्ञान का निराकरण कर सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करे। सम्यग्ज्ञान उस ज्ञान को कहते हैं जिसमें जीव, अजीव आदि मूल तत्त्वों का सविशेष ज्ञान प्राप्त होता है। ज्ञान जीव में सदा विद्यमान रहता है और जब उस ज्ञान में सम्यक्त्व का आविर्भाव होता है तब वह सम्यक्-ज्ञान कहलाता है।५ सम्यग्ज्ञान का अर्थ प्रमाणादि द्वारा यथार्थ ज्ञान से नहीं होता, बल्कि मिथ्यादृष्टि के निवारण से है। मिथ्यादृष्टि का निवारण ही मोक्ष में सहायक होता है। साथ ही सम्यग्ज्ञान
असंदिग्ध तथा दोषरहित होता है।४६ परन्तु प्रश्न उठता है कि कौन-सा ज्ञान साधना के लिए आवश्यक है? इसके उत्तरस्वरूप आचार्य यशोविजयजी ज्ञानसार में लिखते हैं कि मोक्ष के हेतुभूत एक पद का ज्ञान भी श्रेष्ठ है, जबकि मोक्ष-साधना में अनुपयोगी विस्तृत ज्ञान भी व्यर्थ है।४७ साधक के लिए स्व-पर स्वरूप का भान, हेय और उपादेय का ज्ञान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org