________________
योग की अवधारणा : जैन एवं बौद्ध
५७
३. अब्रह्मचर्य विरति-मात्र कामेच्छा विरमण ही नहीं, प्रत्युत कामेच्छा के ___ सम्भव हेतुओं का भी विरमण। ४. मृषावाद विरति-झूठ का विरमण। ५. सुरामद्य विरति-नशीली वस्तुओं के सेवन से विरमण । ६. अकालभोजन विरति-रात्रि भोजन विरमण। ७. नाट्य-संगीत विरति- सभी प्रकार के मनोरंजनों का विरमण । ८. माल्य, गन्ध, विलेपन आदि से विरति - भिक्षुओं के लिए शारीरिक श्रृंगार
प्रसाधन का विरमण। ९. उच्चशयन/महाशयन विरति - सुखपूर्वक शयन का सर्वथा त्याग। १०. जातरूप रजत के प्ररिग्रह से विरति - बहुमूल्य वस्तुओं के ग्रहण का निषेध।
उपासकों/श्रावकों के लिए प्रारम्भ की पाँच विरतियों का विधान है, जो पंचशील के रूप में जाना जाता है, किन्तु भिक्षुओं के लिए उक्त सभी दस विरतियों से सम्पन्न होना आवश्यक है। १६३ शील के प्रकार
ऐसे तो विसुद्धिमग्गो में आचार के आधार पर शील एक प्रकार का, चारित्रवारित्र, विरति-अविरति आदि भेदों से दो प्रकार का, हीन-मध्यम-उत्तम,आत्माधिपत्यलोकाधिपत्य-धर्माधिपत्य आदि भेदों से तीन प्रकार का, हानिभागीय, स्थितिभागीय, विशेषभागीय, निर्वेधभागीय; प्रातिमोक्षसंवर, इन्द्रियसंवर, आजीवपारिशुद्धि, प्रत्ययसंनिश्रित आदि भेदों से चार प्रकार का और प्रहाण, वेरमणी, चेतना, संवर और अनुलंघन आदि भेदों से पाँच प्रकार का कहा गया है।१६४ किन्तु इन सबका समावेश प्रातिमोक्षसंवरशील, इन्द्रिय संवरशील, आजीवपारिशुद्धिशील और प्रत्ययसंनिश्रित शील के अन्तर्गत हो जाता है। प्रातिमोक्षसंवरशील
. शिक्षापदशील को प्रातिमोक्ष कहते हैं। जब साधक प्रातिमोक्षसंवर से युक्त होता हुआ, आचार एवं गोचर से सम्पन्न होता है, लेशमात्र दोषों से भी भय खाता है और शिक्षापदों को कुशलतापूर्वक सीखता है तो उस साधक के शील को प्रातिमोक्षसंवरशील कहा जाता है।१६५ मुख्यतः इसका सम्बन्ध शब्दों, कृत्यों और विचारों की पवित्रता से होता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org