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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
जैन परम्परा में आत्म-विकास (आध्यात्मिक विकास) अथवा चारित्र-विकास की समस्त अवस्थाओं को चौदह भागों में विभाजित किया है जो चौदह गुणस्थान के नाम से जाना जाता है। आत्मिक गुणों के विकास की क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। गुणस्थान जैन चारित्र की चौदह सीढ़ियाँ हैं। साधक को इन्हीं सीढ़ियों से चढ़ना उतरना पड़ता है। आत्मा की विकास-प्रक्रिया में उत्थान-पतन का होना स्वाभाविक है। आत्मशक्ति की विकसित और अविकसित अवस्था को ही जैन परम्परा में गुणस्थान कहा गया है। इसके चौदह प्रकार इस प्रकार हैं१. मिथ्यादृिष्ट
२. सास्वादनदृष्टि ३. मिश्रदृष्टि
४. अविरत सम्यक्-दृष्टि ५. देश विरत-विरताविरत ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. अपूर्वकरण ९. अनिवृत्तिकरण १०.सूक्ष्मसम्पराय ११. उपशान्तमोह १२. क्षीणमोह १३. सयोग केवली १४. अयोग केवली
उपर्युक्त चौदह गणस्थानों में से प्रथम तीन का अन्तर्भाव बहिरात्मा में होता है, क्योंकि इन अवस्थाओं में जीव विविध कषायों से रंजित होता है। चतुर्थ से बारहवें गुणस्थान का अन्तर्भाव अन्तरात्मा में होता है। शेष दो गुणस्थान का अन्तर्भाव परमात्मा में होता है, क्योंकि इस अवस्था तक आते-आते जीव परमात्म अर्थात् आत्मा अपने चरमावस्था को प्राप्त कर लेती है। अभिप्राय यह है कि प्रथम गुणस्थान में आत्मशक्ति का प्रकाश अत्यन्त मन्द होता है। लेकिन जैसे-जैसे आत्मशक्ति आगे के गुणस्थानों की ओर बढ़ती जाती है, आत्मप्रकाश भी बढ़ता जाता है और अन्तिम गुणस्थान में आत्मा अपने असली रूप में पहुँच जाती है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान
यह अवस्था आत्मा की अज्ञानमय अवस्था होती है। इसमें मोह की प्रबलतम स्थिति होने के कारण व्यक्ति की आध्यात्मिक स्थिति बिल्कुल गिरी हुई होती है, क्योंकि प्राणी यथार्थबोध के अभाव में बाह्य पदार्थों से सुखों की प्राप्ति की कामना करता है। अयथार्थ दृष्टिकोण के कारण वह असत्य को सत्य और अधर्म को धर्म मानकर चलता
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