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बन्धन एवं मोक्ष
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प्रिय स्वर और (xiv) मनोज्ञ स्वर।५२
इसी प्रकार अशुभ नामकर्म से प्राप्त व्यक्तित्व के बारे में भी वर्णन आया है जो ठीक उपर्युक्त व्यक्तित्व विपाक के विपरीत है।
अशुभ नाम कर्म से प्राप्त फल - (i) अप्रभावक वाणी, (ii) असुन्दर शरीर (iii) शारीरिक मलों का दुर्गन्ध युक्त होना (iv) जैवीय रसों की असमुचितता, (v) अप्रिय स्पर्श, (vi) अनिष्ट गति (vii) अंगों का समुचित स्थान पर न होना (viii) सौन्दर्य का अभाव, (ix) अपयश, (x) पुरुषार्थ करने की शक्ति का अभाव, (xi) हीन स्वर, (xii) दीन स्वर, (xiii) अप्रिय स्वर और (xiv) अकान्त स्वर।५३ गोत्र कर्म
जीव का अच्छी दृष्टि से देखा जाना या तुच्छ दृष्टि से देखा जाना, उच्च कुल में होना या नीच कुल में होना या दीन-हीन होना ये सब गोत्र कर्म पर निर्भर करता है। इसके भी दो प्रकार हैं- उच्च गोत्र कर्म और नीच गोत्र कर्म।
उच्च गोत्र कर्मबन्ध के कारण ४- () आत्मनिन्दा, (ii) पर-प्रशंसा, (iii) आच्छादन, (iv) अनुत्सेक अर्थात् ज्ञान सम्पत्ति आदि में दूसरे से अधिकता होने पर भी उसके कारण गर्व न करना।
नीच गोत्र कर्मबन्ध के कारण५ - () पर-निन्दा (ii) आत्मप्रशंसा (iii) आच्छादन (iv) उद्भावन अर्थात् अपने में गुण न होने पर भी उनका प्रदर्शन करना।
गोत्र कर्म से प्राप्त फल ६- उच्च गोत्र का पालन करने से निम्नलिखित फलों की प्राप्ति होती है- (i) निष्कलंक भ्रातृ-पक्ष, (ii) प्रतिष्ठित पितृ-पक्ष, (iii) सबल शरीर (iv) सौन्दर्य युक्त शरीर (v) उच्च साधना एवं तप (vi) तीव्र बुद्धि (vii) लाभ एवं विधि उपलब्धियाँ और (viii) अधिकार स्वामित्व। ठीक इसके विपरीत नीच गोत्र कर्म का पालन करनेवाले अहंकारी व्यक्तित्व के व्यक्ति को उपर्युक्त फलों से वंचित रहना पड़ता है। अन्तराय कर्म
जिससे दान देने-लेने या भोगादि में विघ्न पड़ता है, वह अन्तराय कर्म है।५७ या यूँ कहा जा सकता है कि अभीप्सित वस्तु की प्राप्ति में बाधा पहुँचानेवाला कर्म अन्तरायकर्म कहलाता है। अन्तराय का अर्थ ही होता है- 'विघ्न'। इसके पाँच प्रकार हैं
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